गीता रहस्य -तिलक पृ. 188

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

अतएव उपनिषदों में जहाँ जहाँ अव्यक्त अर्थात नेत्रों से न दिखाई देने वाले परमात्मा की (चिन्तन,मनन, ध्यान) उपासना बताई गई है, वहाँ वहाँ अव्यक्त परमेश्वर सगुण ही कल्पित किया गया है। परमात्मा में कल्पित किये गये गुण उपासक के अधिकारानुसार न्यूनाधिक व्यापक या सात्त्विक रहते हैं; और जिसकी जैसी निष्ठा हो उसको वैसा ही फल मिलता है। छांदोग्योपनिषद [1] में कहा है, कि ‘पुरुष क्रतुमय है, जिसका जैसा क्रतु (निश्चय) हो, उसे मृत्यु के पश्‍चात वेसा ही फल भी मिलता है,’ और भगवद्गीता भी कहती है -‘देवताओं की भक्ति करने वाले देवताऔं में और पितरों की भक्ति करने वाले पितरों में जा मिलते हैं’[2] अथवा ‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’ -जिसकी जैसी श्रद्धा हो उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है[3]। तात्पर्य है, कि उपासक के अधिकार -भेद के अनुसार उपास्य अव्यक्त परमात्मा के गुण भी उपनिषदों में भिन्न भिन्न कहे गये हैं। उपनिषदों के इस प्रकरणको ‘विद्या’ कहते हैं। विद्या ईश्वर-प्राप्ति का (उपासनारूप) मार्ग है और यह मार्ग जिस प्रकरण में बतलाया गया है उसे भी ‘विद्या’ ही नाम दिया जाता है।

शांडिल्यविद्या [4], पुरुषविद्या [5], पर्यकविद्या[6], प्राणोपासना [7]इत्यादि अनेक प्रकार की उपासनाओं का वर्णन उपनिषदों में किया गया है; और इन सबका विवेचन वेदान्तसूत्रों के तृतीयाध्याय के तीसरे पाद में किया गया है। इस प्रकरण में अव्यक्त परमात्मा का सगुण वर्णन इस प्रकार है कि वह मनोमय, प्राणशरीर, भारूप, सत्यसंकल्प, आकाशात्मा, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगंध और सर्वरस है [8]। तैतिरीय उपनिषद में तो अन्न, प्राण, मन, ज्ञान या आनंद - इन रूपों में भी परमात्मा की बढ़ती हुई उपासना बतलाई गई है[9]। बृहदारणयक [10]में गार्ग्य बालाकी ने अजातशत्रु को पहले पहल आदित्य, चन्द्र, विद्युत, आकाश, वायु, अग्नि, जल या दिशा में रहने वाले पुरुषों की ब्रह्मरूप उपासना बतलाई है; परन्तु आगे अजातशत्रु ने उससे यह कहा कि सच्चा ब्रह्म इनके भी परे है, और अन्त में प्राणोपासना ही को मुख्य ठहराया है। इतने ही से यह परम्परा कुछ पूरी नहीं हो जाती।

उपर्युक्त सब ब्रह्मरूपों को प्रतीक, अर्थात इन सब को उपासना के लिये कल्पित गौण ब्रह्मस्वरूप, अथवा ब्रह्मनिदर्शक चिह्न कहते हैं; और जब यही गौणरूप किसी मूर्ति के रूप में नेत्रों के सामने रखा जाता है तब उसी को ‘प्रतिमा’ कहते हैं। परन्तु स्मरण रहे कि सब उपनिषदों का सिद्धान्त यही है, कि सच्चा ब्रह्मस्वरूप इससे भिन्न है [11]। इस ब्रह्म के लक्षणों का वर्णन करते समय कहीं तो ‘‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’’ [12] या ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ [13] कहा है; और कहीं ‘सच्चिदानन्दरूप’ कह कर अर्थात ब्रह्म सत्य (सत), ज्ञान (चित) और आनन्दरूप है, इस प्रकार सब गुणों में समावेश करके वर्णन किया गया है। और अन्य स्थानों में भगवद्गीता के समान ही, परस्पर विरुद्ध गुणों को एकत्र कर ब्रह्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है, कि ‘ब्रह्म सत भी नहीं और असत भी नहीं’[14] अथवा ‘अणोरणीयान्महतो महीयान्’ अर्थात अणु से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा है[15],

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.14.1
  2. गी. 9.25
  3. 17.3
  4. छां.3.14
  5. छां.3.16,17
  6. कौषी.1
  7. कौषी. 2
  8. छं. 3.14.2
  9. तै.2.1-5;3. 2-6
  10. 2.1
  11. केन.1.2-8
  12. तैत्ति.2.1
  13. बृ.3.9.28
  14. ऋ.10.129.1
  15. कठ. 2.20

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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