गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
जब प्राणियों के सुख-दुःख आदि सब ‘भाव’ उसी से उत्पन्न होते हैं[1], और जब प्राणियों के हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करने वाला भी वही है एवं ‘‘लभते च तत: कामान मयैव विहितान हि तान्’’ [2]- प्राणियों की वासनाओं का फल देने वाला भी वही है; तब तो यही बात सिद्ध होती है, कि वह अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को अगोचर भले ही हो, तथापि वह दया, कर्तृत्व आदि गुणों से युक्त अर्थात ‘सगुण’ अवश्य ही होगा। परन्तु इसके विरुद्ध भगवान ऐसा भी कहते हैं कि ‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति’’-मुझे कर्मों का अर्थात गुणों का कभी स्पर्श भी नहीं होता [3]; प्रकृति के गुणों से मोहित हो कर मूर्ख लोग आत्मा ही को कर्ता मानते हैं [4]; अथवा यह अव्यक्त और अकर्ता परमेश्वर ही प्राणियों के हृदय में जीवरूप से निवास करता है[5] और इसीलिये यद्यपि वह प्राणियों के कर्तव्य और कर्म से वस्तुतः अलिप्त है, तथापि अज्ञान में फंसे हुए लोग मोहित हो जाया करते हैं। [6] इस प्रकार अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को अगोचर परमेश्वर के रूप-सगुण और निर्गुण- दो तरह के ही नहीं हैं; प्रत्युत इसके अतिरिक्त कहीं कहीं इन दोनों रूपों को एक मिला कर भी अव्यक्त परमेश्वर का वर्णन किया गया है। उदाहरणार्थ, ‘‘भूतभृत न च भूतस्थो’’[7]- मैं भूतों का आधार होकर भी उनमें नहीं हूँ, ‘‘परब्रह्म न तो सत है और न असत’’ [8]; ‘‘सर्वेन्द्रियवान होने का जिसमें भास हो परन्तु जो सर्वेन्द्रिय-रहित है; और निर्गुण होकर गुणों का उपभोग करने वाला है’’ [9]; ‘‘दूर है और समीप भी है’’ [10]; ‘‘अविभक्त है और विभक्त भी देख पड़ता है’’[11]- इस प्रकार परमेश्वर के स्वरूप का सगुण-निर्गुण मिश्रित अर्थात परस्पर विरोधी वर्णन भी किया गया है। तथापि आरम्भ में, दूसरे ही अध्याय में कहा गया है कि ‘यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य है’ [12]; और इसके आगे तेरहवें अध्याय में -‘‘यह परमात्मा अनादि, निर्गुण और अव्यक्त है इसलिये शरीर में रह कर भी न तो यह कुछ करता है और न किसी में लिप्त होता है’’[13]- इस प्रकार परमात्मा के शुद्ध, निर्गुण, निरवयव, निर्विकार, अचिन्त्य, अनादि और अव्यक्त रूप की ही श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। भगवद्गीता की भाँति उपनिषदों में भी अव्यक्त परमात्मा का स्वरूप तीन प्रकार का पाया जाता है- अर्थात कभी सगुण, कभी उभयविध यानि सगुण-निर्गुण मिश्रित और कभी केवल निर्गुण। इस बात की कोई आवश्यकता नहीं कि उपासना के लिये सदा प्रत्यक्ष मूर्ति ही नेत्रों के सामने रहे। ऐसे स्वरूप की भी उपसना हो सकती है कि जो निराकार अर्थात चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अगोचर हो। परन्तु जिसकी उपासना की जाय, वह चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को गोचर भले ही न हो; तो भी मन को गोचर हुए बिना उसकी उपासना होना सम्भव नहीं है। उपासना कहते हैं चिन्तन, मनन या ध्यान को। यदि चिन्तित वस्तु का कोई रूप न हो, तो न सही; परन्तु जब तक उसका अन्य कोई भी गुण मन को मालूम न हो जाय तब तक वह चिन्तन करेगा ही किसका? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.5
- ↑ 7. 22
- ↑ 4.14
- ↑ 3.27; 14.19
- ↑ 13.31
- ↑ 5.14,15
- ↑ 9.5
- ↑ 13.12
- ↑ 13.14
- ↑ 13.15
- ↑ 13.16
- ↑ 2.25
- ↑ 13.31
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