गीता रहस्य -तिलक पृ. 179

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

भिन्नता का भास होना अहंकार का परिणाम है; और पुरुष यदि निर्गुण है, तो असंख्य पुरुषों के अलग अलग रहने का गुण उसमें रह नहीं सकता। अथवा, यह कहना पड़ता है, कि वस्तुतः पुरुष असंख्य नहीं हैं, केवल प्रकृति की अहंकार गुणरूपी उपाधि से उनमें अनेकता देख पड़ती है। दूसरा एक प्रश्न यह उठता है, कि स्वतंत्र प्रकृति का स्वतंत्र पुरुष के साथ जो संयोग हुआ है, वह सत्य है या मिथ्या? यदि सत्य माने तो वह संयोग कभी भी छूट नहीं सकता, अतएव सांख्य मतानुसार आत्मा को मुक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। यदि मिथ्या मानें तो यह सिद्धान्त ही निर्मूल या निराधार हो जाता है, कि पुरुष के संयोग से प्रकृति अपना खेल उसके आगे खेला करती है। और यह दृष्टांत भी ठीक नहीं कि जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के लिये दूध देती हैं, उसी प्रकार पुरुष के लाभ के लिये प्रकृति सदा कार्य-तत्पर रहती है क्योंकि बछड़ा गाय के पेट से ही पैदा होता है इसलिये उस पर पुत्र वात्सल्य के प्रेम का उदाहरण जैसा संगठित होता है, वेसा प्रकृति और पुरुष के विषय में नही कहा जा सकता [1]। सांख्य-मत के अनुसार प्रकृति और पुरुष दोनों तत्त्व अत्यंत भिन्न हैं-एक जड़ है, दूसरा सचेतन। अच्छा; जब ये दोनों पदार्थ सृष्टि के उत्पत्ति-काल से ही एक दूसरे से अत्यंत भिन्न और स्वतंत्र हैं, तो फिर एक की प्रवृति दूसरे के फायदे ही के लिये क्यों होनी चाहिये?

यह तो कोई समाधानकारक उत्तर नहीं, कि उनका स्वभाव ही वैसा है। स्वभाव ही मानना हो, तो फिर हैकल का जड़ाद्वैत-वाद क्यों बुरा है? हैकल का भी सिद्धान्त यही है न, कि मूल प्रकृति के गुणों की वृद्धि होते होते उसी प्रकृति में अपने आप को देखने की और स्वयं अपने विषय में विचार करने की चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है- अर्थात यह प्रकृति का स्वभाव ही है। परन्तु इस मत को स्वीकार न कर सांख्यशास्त्र ने यह भेद किया है, कि ‘द्रष्ट’ अलग है और ‘दृश्य सृष्टि’ अलग है। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है किसांख्य-वादी जिस न्याय का अवलंबन कर ‘द्रष्टा पुरुष’ और ‘दृश्य सृष्टि’ में भेद बतलाते हैं, उसी न्याय का उपयोग करते हुए और आगे क्यों न चलें? दृश्य सृष्टि की कोई कितनी भी सूक्ष्मता से परीक्षा करे; और यह जान ले कि जिन नेत्रों से हम पदार्थों को देखते-परखते हैं उनके मज्जातन्तुओं में अमुक अमुक गुण-धर्म हैं; तथापि इन सब बातों को जानने वाला या ‘द्रष्टा‘ भिन्न रह ही जाता है। क्या इस ‘द्रष्टा’ के विषय में, जो ‘दृश्य सृष्टि’ से भिन्न है, विचार करने के लिये कोई साधन या उपाय नहीं है? और यह जानने के लिए भी कोई मार्ग है या नहीं, कि इस दृश्य सृष्टि का सच्चा स्वरूप जैसा हम अपनी इन्द्रियों से देखते हैं वैसा ही है, या उससे भिन्‍न है? सांख्य-वादी कहते हैं कि, इन प्रश्नों का निर्णय होना असम्भव है अतएव यह मान लेना पड़ता है, कि प्रकृति और पुरुष दोनों तत्त्व मूल ही में स्वतंत्र और भिन्न हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेसू. शांभा. 2.2.3

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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