गीता रहस्य -तिलक पृ. 172

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

जब कोई मनुष्य बिना ज्ञान प्राप्त किये ही मर जाता है, तब मृत्यु के समय उसके आत्मा के साथ ही प्रकृति के उक्त 18 तत्त्वों से बना हुआ यह लिंग-शरीर भी स्थूल देह से बाहर हो जाता है; और जब तक उस पुरुष को ज्ञान की प्राप्ति हो नहीं जाती तब तक, उस लिंग-शरीर ही के कारण उसको नये नये जन्म लेने पड़ते हैं। इस पर कुछ लोगों का यह प्रश्न है कि, मनुष्य की मृत्यु के बाद जीव के साथ साथ इस जड़ देह में बुद्धि, अहंकार, मन और दस इन्द्रियों के व्यापार भी नष्ट होते हुए हमें प्रत्यक्ष में देख पड़ते हैं; इस कारण लिंग शरीर में इन तेरह तत्त्वों का समावेश किया जाना तो उचित है, परन्तु इन तेरह तत्त्वों के साथ पांच सूक्ष्म तन्मात्राओं का भी समावेश लिंग शरीर में क्यों किया जाना चाहिए? सांख्यों का उत्तर यह है कि ये तेरह तत्त्व-निरीबुद्धि, निरा अहंकार, मन और दस इन्द्रियां-प्रकृति के केवल गुण हैं; और, जिस तरह छाया को किसी न किसी पदार्थ का तथा चित्र को दीवार, कागज आदि का आश्रय आवश्यक है, उसी तरह इन गुणात्मक तेरह तत्त्वों को भी एकत्र रहने के लिये किसी द्रव्य के आश्रय की आवश्यकता होती है।

आत्मा ‘‘पुरुष’’ स्वयं निर्गुण और अकर्ता हैं इसलिये वह स्वयं किसी भी गुण का आश्रय हो नहीं सकता। मनुष्य की जीवितावस्था में उसके शरीर के स्थूल पंचमहाभूत ही इन तेरह तत्त्वों के आश्रय-स्थान हुआ करते हैं। परन्तु, मृत्यु के बाद अर्थात स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर, स्थूल पंचमहाभूतों का यह आधार छूट जाता है। तब,उस अवस्था में, इन तेरह गुणात्मक तत्त्वों के लिये किसी अन्य द्रव्यात्मक आश्रय की आवश्यकता होती है। यदि मूल प्रकृति ही को आश्रय मान लें, तों वह अव्यक्त और अविकृत अवस्था की अर्थात अनंत और सर्वव्यापी होने के कारण, एक छोटे से लिंग-शरीर के अहंकार, बुद्धि आदि गुणों का आधार नहीं हो सकती। अतएव, मूल प्रकृति के ही द्रव्यात्मक विकारों में से, स्थूल पंचमहाभूतों के बदले, उनके मूलभूत पांच सूक्ष्म तन्‍मात्र-द्रव्यों का समावेश, उपर्युक्त तेरह गुणों के साथ ही साथ उनके आश्रय-स्थान की दृष्टि से, लिंग-शरीर में किया जाता है[1]। बहुतेरे सांख्य ग्रन्थकार, लिंग-शरीर और स्थूलशरीर के बीच एक और तीसरे शरीर पंचतन्मात्राओं से बने हुए की कल्पना करके, प्रतिपादन करते हैं कि यह तीसरा शरीर लिंग शरीर का आधार है।

परन्तु हमारा मत यह है कि सांख्य कारिका की इकतालीसवीं आर्या का यथार्थ भाव वैसा नहीं है, टीकाकारों ने भ्रम से तीसरे शरीर की कल्पना की है। हमारे मतानुसार इस आर्या का उद्देश्य सिर्फ इस बात का कारण बतलाना ही है, कि बुद्धि आदि तेरह तत्त्वों के साथ पंचतन्मात्राओं का भी समावेश लिंग शरीर में क्यों किया गया; इसके अतिरिक्त अन्य कोई हैतु नहीं है[2] कुछ विचार करने से प्रतीत हो जायेगा कि, सूक्ष्म अठारह तत्त्वों सांख्योक्त लिंग-शरीर में और उपनिषदों में वर्णित लिंग-शरीर में विशेष भेद नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सां.का.41
  2. भट्ट कुमारलि कृत मींमासाश्लोकवार्तिक ग्रन्थ के एक श्लोक से (आत्मवाद, श्लो.62) देख पड़ेगा कि उन्होंने भी इस आर्या का अर्थ हमारे अर्थ के अनुसार ही किया है। वह श्लोक यह हैः- अंतराभवदेहो हि नेष्यते विंध्यवासिना। तदस्तित्वे प्रमाणं हि न किंचिदवगम्यते।।62।। ‘‘अंतराभव, अर्थात लिंगशरीर और स्थूलशरीर के बीच वाले शरीर से विंध्यवासी सहमत नहीं हैं। यह मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं है कि उक्‍त प्रकार का कोई शरीर है।’’ ईश्वरकृष्ण विंध्याचल पर्वत पर रहता था, इसलिये उसको विंध्यवासी कहा है। अंतराभवशरीर को ‘गंधर्व’ भी कहते हैं। अमरकोश 3.3.132 और उस पर कृष्णाजी गोविंद ओक द्वारा प्रकाशित क्षीरस्वामी की टीका तथा उस ग्रंथ की प्रस्तावना पृष्ठ 8 देखो।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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