गीता रहस्य -तिलक पृ. 170

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

जैसे दही को मथने से मक्खन ऊपर आ जाता है, वैसे ही उक्त तीन सूक्ष्म तत्त्वों से बना हुआ अन्‍न जब पेट में जाता है तब उनमें से तेज-तत्त्व के कारण मनुष्य के शरीर में स्थूल, मध्यम और सूक्ष्म परिणाम –जिन्‍हें क्रमशः अस्थि, मज्जा और वाणी कहते हैं - उत्पन्न हुआ करते हैं; इसी प्रकार आप अर्थात जल तत्त्व से मूत्र, रक्त और प्राण; तथा अन्‍न अर्थात पृथ्वी-तत्त्व से पुरीष, मांस और मन निर्मित होता है[1]। छांदोग्योपनिषद की यही पद्धति वेदान्तसूत्रों [2] में भी कही गई है, कि मूल महाभूतों की संख्या पांच नहीं, केवल तीन ही है; और उनके त्रिवृत्करण से सब दृश्य पदार्थों की उत्पत्ति भी मालूम की जा सकती है। बादरायणाचार्य तो पंचीकरण का नाम तक नहीं लेते। तथापि तैतिरीय [3], प्रश्‍न [4], बृहदारणयक [5] आदि अन्य उपनिषदों में, और विशेषतः श्वेताश्वतर[6], वेदान्तसूत्र [7] तथा गीता[8]में भी, तीन के बदले पांच महाभूतों का वर्णन है; गर्भोपनिषद के आरंभ ही में कहा है कि मनुष्य देह ‘पंचात्मक’ है; और, महाभारत तथा पुराणों में तो पंचीकरण का स्पष्ट वर्णन ही किया गया है[9]

इससे यही सिद्ध होता है कि, यद्यपि त्रिवृत्करण प्राचीन है तथापि जब महाभूतों की संख्या तीन के बदले पांच मानी जाने लगी तब त्रिवृत्करण के उदाहरण ही से पंचीकरण की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ और त्रिवृत्करण पीछे रह गया, एवं अंत में पंचीकरण की कल्पना सब वेदान्तियों को प्राप्त हो गई। आगे चल कर इसी पंचीकरण शब्द के अर्थ में यह बात भी शामिल हो गई, कि मनुष्य का शरीर केवल पंचमहाभूतों से बना ही नहीं है किन्तु उन पंचमहाभूतों में से हर एक पांच प्रकार से शरीर में विभाजित भी हो गया है; उदाहरणार्थ, त्वक्, मांस, अस्थि, मज्जा और स्नायु ये पांच विभाग अन्‍नमय पृथ्वी-तत्त्व के हैं, इत्यादि -[10] देखो। प्रतीत होता है कि, यह कल्पना भी उपर्युक्त छांदोग्योपनिषद के त्रिवृत्करण के वर्णन से सूझ पड़ी है।

क्योंकि, वहाँ भी अंतिम वर्णन यही है कि, ‘तेज,आप और पृथ्वी’ इन तीनों तत्त्वों में से प्रत्येक, तीन तीन प्रकार से मनुष्य की देह में पाया जाता है।इस बात का विवेचन हो चुका कि, मूल अव्यक्त प्रकृति से, अथवा वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार परब्रह्म से, अनेक नाम और रूप् धारण करने वाले सृष्टि के अचेतन अर्थात निर्जीव तथा जड़ पदार्थ कैसे बने हैं। अब इस बात का विचार करना चाहिये कि सृष्टि के सचेतन अर्थात सजीव प्राणियों की उत्पत्ति के संबंध में सांख्य शास्त्र का विशेष कथन क्या है; और फिर यह देखना चाहिये कि वेदान्तशास्त्र के सिद्धान्तों से उसका कहाँ तक मेल है। जब मूल प्रकृति से प्रादुर्भाव पृथ्वी आदि स्थूल पंचमहाभूतों का संयोग सूक्ष्म इन्द्रियों के साथ होता है तब उससे सजीव प्राणियों का शरीर बनता है। परन्तु, यद्यपि यह शरीर सेंद्रिय हो, तथापि वह जड़ ही रहता है। इन इन्द्रियों को प्रेरित करने वाला तत्त्व जड़ प्रकृति से भिन्न होता है, जिसे ‘पुरुष’ कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छां. 6.2-6
  2. 2.4.20
  3. 2.1
  4. 4.8
  5. 4.4.5
  6. 2.12
  7. 2.3.1-14
  8. 7.4; 13.5
  9. मभा.शां.184-186
  10. मभा. शां. 184.20-25; और दासबोध 17. 8

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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