गीता रहस्य -तिलक पृ. 165

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

यह महान् तत्त्व प्रकृति से उत्पन्न हुआ है, इसलिये यह ‘प्रकृति की विकृति या विकार’ है; और इसके बाद महान् तत्त्व से अहंकार निकला है अतएव ‘महान्‘ अहंकार की प्रकृति अथवा मूल है। इस प्रकार महान् अथवा बुद्धि एक ओर से अहंकार की प्रकृति या मूल है; और, दूसरी ओर से, वह मूलप्रकृति की विकृति अथवा विकार है। इसीलिये सांख्यों ने उसे ‘प्रकृति-विकृति’ नामक वर्ग में रखा है; ओर इसी न्याय के अनुसार अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राओं का समावेश भी ‘प्रकृति-विकृति’ वर्ग ही में किया जाता है। जो तत्त्व अथवा गुण स्वयं दूसरे से उत्पन्न (विकृति) हो और आगे वही स्वयं अन्य तत्त्वों का मूलभूत ( प्रकृति ) हो जावे, उसे ‘प्रकृति-विकृति’ कहते हैं। इस वर्ग के सात तत्त्व ये हैं:- महान, अहंकार और पञ्चतन्‍मात्राएं (3) परन्‍तु पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन और स्‍थूल पंचमहाभूत, इन सोलह तत्त्वों से आगे किन्‍हीं अन्‍य तत्त्वों की उत्‍पत्ति नहीं होती। इसके उलटा, ये स्‍वयं दूसरे तत्‍वों से प्रादुर्भूत हुए हैं। (4) 'पुरुष' न प्रकृति है और न विकृति़, वह स्‍वतंत्र और उदासीन दृष्‍टा है ईश्‍वरकृष्‍ण ने इस प्रकार वर्गीकरण करके उसका स्पष्टीकरण किया है-

मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष:।।

अर्थात् ‘‘यह मूलप्रकृति अविकृति है अर्थात किसी का भी विकार नहीं है। महदादि सात ( अर्थात् महत्, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ ) तत्त्व प्रकृति-विकृति है; और मन सहित ग्यारह इंन्द्रियाँ तथा स्थूल पञ्चमहाभूत मिला कर सोलह तत्त्वों को केवल विकृति अथवा विकार कहते हैं। पुरुष, न प्रकृति है न विकृति ‘‘( सां. का. 3 )। आगे इन्हीं पच्‍चीस तत्त्वों के और तीन भेद किये गये हैं-अव्यक्त, व्यक्त और ज्ञ। इनमें से केवल एक मूलप्रकृति ही अव्यक्त है, प्रकृति से उत्पन्न हुए तेईस तत्त्व व्यक्त हैं, और पुरुष ज्ञ हैं। ये हुए सांख्यों के वर्गीकरण के भेद। पुराण, स्मृति, महाभारत आदि वैदिकमार्गीय ग्रंथों में प्रायः इन्हीं पच्‍चीस तत्त्वों का उल्लेख पाया जाता है [1]। परन्तु, उपनिषदों में वर्णन किया गया है कि ये सब तत्त्व परब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं और वहाँ इनका विशेष विवेचन या वर्गीकरण भी नहीं किया गया है। उपनिषदों के बाद जो ग्रंथ हुए हैं उनमें इनका वर्गीकरण किया हुआ देख पड़ता है; परन्तु वह, उपर्युक्त सांख्यों के वर्गीकरण से भिन्न है।

कुल तत्त्व पच्‍चीस हैं; इनमें से सोलह तत्त्व तो, सांख्य-मत के अनुसार ही, विकार अर्थात दूसरे तत्त्वों से उत्पन्न हुए हैं; इस कारण उन्हें प्रकृति में अथवा मूलभूत पदार्थों के वर्ग में सम्मिलित नहीं कर सकते। अब ये नौ तत्त्व शेष रहे- 1 पुरुष, 2 प्रकृति 3-9 महत्, अहंकार और पांच तन्मात्राएं। इनमें से पुरुष और प्रकृति, को छोड़ शेष सात तत्त्वों को सांख्यों को सांख्यों ने प्रकृति-विकृति कहा है। परन्तु वेदान्तशास्त्र में प्रकृति को स्वतंत्र न मान कर यह सिद्धान्त निश्चित किया है कि, पुरुष और प्रकृति दोनों एक ही परमेश्वर से उत्पन्न होते हैं। इस सिद्धान्त को मान लेने से, सांख्यों के ‘मूलप्रकृति’ और ‘प्रकृति-विकृति’ भेदों के लिये, स्थान ही नहीं रह जाता। क्योंकि, प्रकृति भी परमेश्वर ही से उत्पन्न होने के कारण मूल नहीं कही जा सकती, किन्तु वह प्रकृति-विकृति के ही वर्ग में शामिल हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैत्र्य. 6. 10; मनु. 1. 14, 15 देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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