गीता रहस्य -तिलक पृ. 164

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
आठवां प्रकरण

सांख्यों ने इन तेईस तत्त्वों में से आकाश तत्त्व ही में दिक् और काल को भी सम्मिलित कर दिया है। वे ‘प्राण’ को भिन्न तत्त्व नहीं मानते; किन्तु जब सब इन्द्रियों के व्यापार आरम्भ होने लगते हैं तब उसी को वे प्राण कहते हैं ( सां.का. 29 )। परन्तु वेदान्तियों को यह मत मान्य नहीं है, उन्होंने प्राण को स्वतन्त्र तत्त्व माना है [1]। यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि, वेदान्ती लोग प्रकृति और पुरुष को स्वयम्भू और स्वतन्त्र नहीं मानते, जैसा कि सांख्य-मतानुयायी मानते हैं; किन्तु उनका कथन है कि दोनों ( प्रकृति और पुरुष ) एक ही परमेश्वर की विभूतियाँ हैं। सांख्य और वेदान्त के उक्त भेदों को छोड़ कर शेष सृष्ट-युत्पत्ति-क्रम दोनों पक्षों को ग्राह्य है। उदाहरणार्थ, महाभारत में अनुगीता में ‘ब्रह्मवृक्ष’ अथवा ‘ब्रह्मवचन’ का जो दो बार वर्णन किया गया है [2], वह सांख्यतत्त्वों के अनुसार ही है-

अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कंघमयो महान्।

महाहंकारविटपः इंद्रियान्तरकोटरः।।

महाभूतविशाखश्च विशेषप्रतिशाखवान्।

सदापर्णः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः।।

आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः।

एनं छित्वा च भित्वा च तत्त्वज्ञानासिना बुधः।।

हित्त्वा संगमयान् पाशान् मृत्युजन्मजरोदयान्।

निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः।

अर्थात् ‘‘अव्यक्त ( प्रकृति ) जिसका बीज है, बुद्ध ( महान् ) जिसका तना या पींड है, अहंकार जिसका प्रधान पल्लव है, मन और दस इन्द्रियाँ जिसकी अन्तर्गत खोखली या खोंड़र हैं, ( सूक्ष्म ) महाभूत ( पंच तन्मात्राएँ ) जिसकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं, और विशेष अर्थात् स्थूल महाभूत जिसकी छोटी-छोटी टहनियाँ है, इसी प्रकार सदा पत्र, पुष्प, और शुभाशुभ फल धारण करने वाला, समस्त् प्राणि मात्र के लिये आधारभूत, यह सनातन वृहद् ब्रह्मवृक्ष है। ज्ञानी पुरुष को चाहिये, कि वह उसे तत्त्वज्ञानरूपी तलवार से काट कर टूक-टूक कर डाले; जन्म, जरा और मृत्यु उत्पन्न करने वाले संगमय पाशों को नष्ट करे; और ममत्वबुद्धि तथा अहंकार का त्‍याग कर दे; तब वह निःसंशय मुक्त होगा। ‘‘संक्षेप में, यही ब्रह्मवृक्ष प्रकृति अथवा माया का ‘खेल’, ‘जाला‘ या ‘पसारा‘ है। अत्यंत प्राचीन काल ही से-ऋग्वेदकाल ही से -इसे ‘वृक्ष’ कहने की रीति पड़ गई है और उपनिषदों में भी इसको ‘सनातन अश्वत्थवृक्ष’ कहा है ( कठ. 6. 1 )।

परन्तु वेदों में इसका सिर्फ यही वर्णन किया गया है कि उस वृक्ष का मूल ( परब्रह्म ) ऊपर है और शाखाएँ ( दृश्य सृष्टि का फैलाव ) नीचे हैं। इस वैदिक वर्णन को और सांख्यों के तत्त्वों को मिला कर गीता में अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन किया गया है। इसका सृष्टिकरण हमने गीता के 15. 1-2 श्लोकों की अपनी टीका में कर दिया है। ऊपर बतलाये गये पच्‍चीस तत्त्वों का वर्गीकरण सांख्य और वेदान्ती भिन्न-भिन्न रीति से किया करते हैं, अतएव यहाँ पर उस वर्गीकरण के विषय में कुछ लिखना चाहिये। सांख्यों का यह कथन है कि इन पच्‍चीस तत्त्वों के चार वर्ग होते हैं अर्थात् मूलप्रकृति, प्रकृति-विकृति और न-प्रकृति न-विकृति।

1.प्रकृति-तत्त्व किसी दूसरे से उत्पन्न नहीं हुआ है, अतएव उसे ‘मूलप्रकृति’ कहते हैं। 2.मूलप्रकृति से आगे बढ़ने पर जब हम दूसरी सीढ़ी पर आते हैं तब ‘महान्’ तत्त्व का पता लगता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेसू. 2. 4. 9
  2. मभा. अश्व. 35. 20-23; और 47. 12-15

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः