गीता रहस्य -तिलक पृ. 163

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

सांख्यों का मत यह है, कि ये सब इन्द्रियाँ किसी एक ही मूल इन्द्रिय से क्रमशः उत्पन्न नहीं होती; किन्तु जब अहंकार के कारण प्रकृति में विविधता का आरंभ होने लगता है, तब पहले उस अहंकार से ( पाँच सूक्ष्म कर्मेन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियाँ और मन, इन सब को मिला कर ) ग्यारह भिन्न-भिन्न गुण ( शक्ति ) सब के सब एक साथ ( युगपत् ) स्वतंत्र हो कर मूल प्रकृति में ही उत्पन्न होते हैं, और फिर इसके आगे स्थूल सेंन्द्रिय-सृष्टि उत्पन्न हुआ करती है। इन ग्यारह इन्द्रियों में से, मन के बारे में पहले ही, छठवें प्रकरण में बतला दिया गया है, कि वह ज्ञानेन्द्रियों के साथ संकल्प-विकल्पात्मक होता है अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण किये गये संस्कारों की व्यवस्था करके वह उन्हें बुद्धि के सामने निर्णयार्थ उपस्थित करता है; और कर्मेन्द्रियों के साथ वह व्याकरणात्मक होता है अर्थात् उसे बुद्धि के निर्णय को कर्मेन्द्रियों के द्वारा अमल में लाना पड़ता है।

इस प्रकार वह उभयविध, अर्थात् इन्द्रिय-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के काम करने वाला, होता है। उपनिषदों में इन्द्रियों को ही ‘प्राण’ कहा है; और, सांख्यों के मतानुसार उपनिषत्कारों का भी यही मत है कि, ये प्राण पञ्चमहाभूतात्मक नहीं हैं किन्तु परमात्मा से पृथक् उत्पन्न हुए हैं[1]। इन प्राणों की अर्थात् इन्द्रियों की संख्या उपनिषदों में कहीं सात, कहीं दस, ग्‍यारह, बारह और कहीं कहीं तेरह बतलाई गई है। परन्‍तु, वेदान्‍त सूत्रों के आधार से श्रीशंकराचार्य ने निशिचत किया है कि, उपनिषदों के सब वाक्यों की एकरूपता करने पर इन्द्रियों की संख्या ग्यारह ही सिद्ध होती है [2]; और, गीता में तो इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि, ‘‘ इन्द्रियाणि दशैकं च ‘‘[3] अर्थात् इन्द्रियाँ ‘दस और एक’ अर्थात् ग्यारह हैं। अब इस विषय पर सांख्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं रहा।

सांख्यों के निश्चित किये हुए मत का सारांश यह है:— सात्त्विक अहंकार से सेंन्द्रिय-सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इन्द्रिय-शक्तियाँ ( गुण ) उत्पन्न होती हैं; और तामस अहंकार से निरिन्द्रिय-सृष्टि के मूलभूत पाँच तन्मात्रद्रव्य निर्मित होते हैं; इसके बाद पञ्चतन्मात्रद्रव्यों से क्रमशः स्थूल पञ्चमहाभूत ( जिन्हें ‘विशेष’ भी कहते हैं ) और स्थूल निरिन्द्रिय पदार्थ बनने लगते हैं; तथा, यथासम्भव इन पदार्थों का संयोग ग्यारह इन्द्रियों के साथ हो जाने पर, सेंन्द्रिय-सृष्टि बन जाती है। सांख्य-मतानुसार प्रकृति से प्रादुर्भाव होने वाले तत्त्वों का क्रम, जिसका वर्णन अब तक किया गया है, निम्न लिखित वंशवृक्ष से अधिक स्पष्ट हो जायेगाः-

ब्रह्मांड का वंशवृक्ष ।

पुरुष — ( दोनों स्वयंभू और अनादि )— प्रकृति ( अव्यक्त और सूक्ष्म )

(निगुर्ण; पर्यायशब्द:-ज्ञ, द्रष्टा इ॰ )। (सत्त्व-रज-तमोगुणी; पर्यायशब्द:- प्रधान,)

अव्यक्त, माया, प्रसव-धर्मिणी आदि )

महान् अथवा बुद्धि ( व्यक्त और सूक्ष्म )

(पर्यायशब्द:- आसुरी, मति, ज्ञान, ख्याति इ॰ )

अहंकार ( व्यक्त और सूक्ष्म )

( पर्यायशब्द:- अभिमान, तैजस आदि )

( सात्त्विकसृष्टि अर्थात् व्यक्त और सूक्ष्म इन्द्रियाँ ) ( तामस अर्थात् निरिंद्रिय-सृष्टि ) पाँच बुद्धीन्द्रियाँ पाँच कर्मेंन्द्रियाँ मन पन्चतन्मात्राएँ ( सूक्ष्म )

विशेष या पन्चमहाभूत ( स्थूल )

स्थूल पञ्चमहाभूत और पुरुष को मिला कर कुल तत्त्वों की संख्या पच्‍चीस है। इनमें से महान् अथवा बुद्धि के बाद के तेईस गुण मूलप्रकृति के विकार हैं। किन्तु उनमें भी यह भेद है कि, सूक्ष्म तन्मात्राएँ और पाँच स्थूल महाभूत द्रव्यात्मक विकार हैं; और बुद्धि, अहंकार तथा इन्द्रियाँ केवल शक्ति या गुण हैं; ये तेईस तत्त्व व्यक्त हैं और मूलप्रकृति अव्यक्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मुंड. 2. 1. 3
  2. वेसू. शांभा. 2. 4. 5. 6
  3. गी. 13. 5

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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