गीता रहस्य -तिलक पृ. 160

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
आठवां प्रकरण

प्रकृति में उत्पन्न होने वाले अहंकार के इस गुण को, यदि आप चाहें तो, अस्वयंवेद्य अर्थात् अपने आप को ज्ञात न होने वाला अहंकार कह सकते है। परन्तु, स्मरण रहे कि मनुष्य में प्रगट होने वाला अहंकार, और वह अहंकार कि जिसके कारण पेड़, पत्थर, पानी, अथवा भिन्न-भिन्न मूल परमाणु एक ही प्रकृति से उत्पन्न होते हैं,-ये दोनों एक ही जाति के हैं। भेद केवल इतना ही है कि, पत्थर में चैतन्य न होने के कारण उसे ‘अंह’ का ज्ञान नहीं होता और मुँह न होने के कारण ‘मैं-तू’ कह कर स्वाभिमानपूर्वक वह अपनी पृथक्ता किसी पर प्रगट नहीं कर सकता। सारांश यह कि, दूसरों से पृथक रहने का अर्थात् अभिमान या अहंकार का तत्त्व सब जगह समान ही है। इस अहंकार ही को तैजस, अभिमान, भूतादि और धातु भी कहते है। अहंकार, बुद्धि ही का एक भाग है; इसलिये पहले जब तक बुद्धि न होगी तब तक अहंकार उत्पन्न हो ही नहीं सकता। अतएव सांख्यों ने यह निश्चित किया है, कि ‘अहंकार’ यह दूसरा, अर्थात् बुद्धि के बाद का, गुण है। अब यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि सात्त्विक, राजस और तामस भेदों से बुद्धि के समान अहंकार के भी अनन्त प्रकार हो जाते हैं।

इसी तरह उनके बाद के गुणों के भी, प्रत्येक के त्रिघात अनन्त भेद हैं। अथवा यह कहिये कि व्यक्त सृष्टि में प्रत्येक वस्तु के, इसी प्रकार, अनन्त सात्त्विक, राजस और तामस भेद हुआ करते हैं; और, इसी सिद्धान्त का लक्ष्य करके, गीता में गुणत्रय-विभाग और श्रद्धात्रय-विभाग बतलाये गये है [1]।व्यवसायात्मिक बुद्धि और अहंकार दोनों व्यक्त गुण, जब मूल साम्यावस्था की प्रकृति में उत्पन्न हो जाते हैं, तब प्रकृति की एकता छूट जाती है और उससे अनेक पदार्थ बनने लगते हैं। तथापि, उसकी सूक्ष्मता अब तक कायम रहती है। अर्थात् यह कहना अयुक्त न होगा कि, अब नैय्यायिकों के सूक्ष्म परमाणुओं का आरंभ होता है। क्योंकि, अहंकार उत्पन्न होने के पहले, प्रकृति अखंडित और निरवयव थी। वस्तुतः देखने से तो यही प्रतीत होता है, कि निरी बुद्धि और निरा अहंकार केवल गुण है; अतएवं, उपर्युक्त सिद्धान्तों से यह मतलब नहीं लेना चाहिये, कि वे ( बुद्धि और अहंकार ) प्रकृति के द्रव्य से पृथक रहते हैं।

उन सब का भावार्थ यही है कि, जब मूल और अवयव-रहित एक ही प्रकृति में इन गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, तब उसी को विविध और अवयव-सहित द्रव्यात्मक व्यक्त रूप् प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब अहंकार से मूल प्रकृति में भिन्न-भिन्न पदार्थ बननें की शक्ति आ जाती है, तब आगे उसकी बुद्धि की दो शाखाएँ हो जाती हैं। एक,-पेड़, मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की सृष्टि; और दूसरी-निरिन्द्रिय पदार्थों की सृष्टि। यहाँ इन्द्रिय शब्द से केवल ‘इन्द्रियवान् प्राणियों की इन्द्रियों की शक्ति’ इतना ही अर्थ लेना चाहिये। इसका कारण यह है कि, सेन्द्रिय प्राणियों की जड़-देह का समावेश जड़ यानि निरिन्द्रिय-सृष्टि में होता है, और इन प्राणियों का आत्मा ‘पुरुष’ नामक अन्य वर्ग में शामिल किया जाता है। इसीलिये सांख्यशास्त्र में सेन्द्रिय सृष्टि का विचार करते समय देह और आत्मा को छोड़ केवल इन्द्रियों का ही विचार किया जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. अ. 14 और 17

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः