गीता रहस्य -तिलक पृ. 148

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

पिछले प्रकरण में जिसे क्षेत्रज्ञ या आत्मा कहा है, वही यह देखने वाला, ज्ञाता या उपभोग करने वाला है; और इसे ही सांख्यशास्त्र में ‘पुरुष’ या ‘ज्ञ’ (ज्ञाता) कहते हैं। यह ज्ञाता प्रकृति से भिन्न है इस कारण निसर्ग से ही प्रकृति के तीनों (सत्त्व, रज और तम) गुणों के परे रहता है; अर्थात यह निर्विकार और निगुर्ण है, और जानने या देखने के सिवा कुछ भी नहीं करता। इससे यह भी मालूम हो जाता है कि जगत में जो घटनाएं होती रहती हैं वे सब प्रकृति ही के खेल है। सारांश यह है, कि प्रकृति अचेतन या जड़ है और पुरुष सचेतन है; प्रकृति सब काम किया करती है और पुरुष उदासीन या अकर्ता है; प्रकृति त्रिगुणात्मक है और पुरुष निर्गुण है; प्रकृति अंधी है और पुरुष साक्षी है। इस प्रकार इस सृष्टि में यही दो भिन्न भिन्न तत्त्व अनादि सिद्ध, स्वतंत्र और स्वयंभू हैं, यही सांख्य शास्त्र का सद्धिान्त है। इस बात को ध्यान में रख करके ही भगवद्गीता में पहले कहा गया है कि ‘‘ प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि’’-प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं [1]; इसके बाद उनका वर्णन इस प्रकार किया गया है ‘‘कार्य-करणकर्तृत्वे हैतुः प्रकृतिरूच्यते’’ अर्थात देह और इन्द्रियों का व्यापार प्रकृति करती है; और ‘‘पुरुषः सुखदुःखानांभोक्तृत्वे हैतुरूच्यते’’ अर्थात पुरुष सुख-दु:खों का उपभागे करने के लिये, कारण है।

यद्यपि गीता में भी प्रकृति और पुरुष अनादि माने गये हैं, तथापि यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि, सांख्य-वादियों के समान, गीता में ये दोनों तत्त्व स्वतंत्र या स्वयंभू नहीं मानें गये हैं। कारण यह है कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति को अपनी ‘माया’ कहा है [2]; और पुरुष के विषय में भी यही कहा है कि ‘‘ममैवांशों जीवलोके’’[3] अर्थात वह भी मेरा ही अंश है। इससे मालूम हो जाता है कि गीता, सांख्यशास्त्र से भी आगे बढ़ गई है। परंतु अभी उस बात की ओर ध्यान न देकर हम यही देखेंगे कि सांख्यशास्त्र क्या कहता है। सांख्यशास्त्र के अनुसार सृष्टि के सब पदार्थों के तीन वर्ग होते हैं। पहला अव्यक्त (मूल प्रकृति), दूसरा व्यक्त (प्रकृति के विकार), और तीसरा पुरुष अर्थात ज्ञ। परंतु इनमें से प्रलय-काल के समय व्यक्त पदार्थों का स्वरूप नष्ट हो जाता है; इसलिये अब मूल में केवल प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व शेष रह जाते हैं। ये दोनों मूल तत्त्व, सांख्य-वादियों के मतानुसार अनादि और स्वयंभू हैं; इसलिये सांख्यों को द्वैत-वादी (दो मूल तत्त्व मानने वाले) कहते हैं।

वे लोग, प्रकृति और पुरुष के परे ईश्वर, काल, स्वभाव या अन्य किसी भी मूल तत्त्व को नहीं मानते [4]। इसका कारण यह है, कि सगुण ईश्वर, काल और स्वभाव व्यक्त होने के कारण प्रकृति से उत्पन्न होने वाले व्यक्त पदार्थों में ही शामिल हैं; और, यदि ईश्वर को निर्गुण मानें, तो सत्कार्य-वादानुसार निर्गुण मूल तत्त्व से त्रिगुणात्मक प्रकृति कभी उत्पन्न नहीं हो सकती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.13.19
  2. गी.7.14;14.3
  3. गी.15.7
  4. ईश्‍वरकृष्‍ण कट्टर निरीक्षरवादी था। उसने अपनी सांख्‍य-सारिका की अंतिम उपसंहारात्‍मक तीन आर्याओं में कहा है, कि मूल विषय पर 70 आर्याएं थीं परन्‍तु कोलब्रुक और विलसन के अनुवाद के साथ, बंबई में, श्रीयुत तुकाराम तात्या ने जो पुस्तक मुद्रित की है, उसमें मूल विषय पर केवल 69 आर्याएं हैं। इसलिये विलसन साहब ने अपने अनुवाद में यह संदेह प्रगट किया है कि 70 वीं आर्या कौन-सी हैं। परन्तु वह आर्या उनकों नहीं मिली और उनकी शंका का समाधान भी नहीं हुआ। हमारा मत है कि यह आर्या वर्तमान 61 वीं आर्या के आगे होगी। कारण यह है कि 61 वीं आर्या पर गोड़पादाचार्य का जो भाष्य है वह कुछ एक ही आर्या पर नहीं है किंतु दो आर्याओं पर है। और, यदि इस भाष्य के प्रतीक पदों को ले कर आर्या बनाई जाये तो वह इस प्रकार होगीः-
    कारणमीश्वरमेके ब्रुवते कालं परे स्वभावं वा। प्रजाः कथं निर्गुणतो व्यक्तः कालः स्वभावश्च।।
    यह आर्या पिछले और अगले संदर्भ (अर्थ या भाव), से ठीक ठीक मिलती भी है। इस आर्या में निरीश्वर मत का प्रतिपादन है इसलिये, जान पड़ता है कि, किसी ने इसे, पीछे से निकाल डाला होगा। परन्तु, इस आर्या का शोधन करने वाला मनुष्य इसका भाष्य भी निकाल डालना भूल गया; इसलिये अब हम इस आर्या का ठीक ठीक पता लगा सकते हैं और इसी से उस मनुष्य को धन्यवाद ही देना चाहिये। श्वेताश्वतरोपनिषद के छठवें अध्याय के पहले मंत्र से प्रगट होता है कि, प्राचीन समय में, कुछ लोग स्वभाव और काल को, और वेदान्ती तो उसके भी आगे बढ़ कर ईश्वर को, जगत का मूल कारण मानते थे। वह मंत्र यह है-
    स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्ममानाः। देवस्यैषा महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम।।
    ईश्वरकृष्ण ने उपर्युक्त आर्या को, वर्तमान 61 वीं आर्या के बाद ही, सिर्फ यह बतलाने के लिये रखा है, कि ये तीनों मूल कारण (अर्थात स्वभाव, काल और ईश्वर) सांख्य वादियों को मान्य नहीं है।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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