गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
परब्रह्म का वर्णन करते समय दासबोध[1] में भी समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं ‘‘जिधर देखिये उधर ही वह अपार है, उसका किसी ओर पार नहीं है। वह एक ही प्रकार का और स्वतंत्र है, उसमें द्वैत (या और कुछ) नहीं है[2]।’’ सांख्यवादियों की ‘प्रकृति’ के विषय में भी यही वर्णन उपयुक्त हो सकता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति अव्यक्त, स्वयंभू और एक ही सी है; और वह चारों ओर निरंतर व्याप्त है। आकाश, वायु आदि भेद पीछे से हुए, यद्यपि वे सूक्ष्म हैं तथापि व्यक्त हैं; और इन सब की मूल प्रकृति एक ही सी तथा सर्वव्यापी और अव्यक्त है। स्मरण रहे कि, वेदान्तियों के ‘परब्रह्म’ में और सांख्य वादियों की ‘प्रकृति’ में आकाश-पाताल का अन्तर है। इसका कारण यह है कि, परब्रह्म चैतन्यरूप् और निर्गुण है; परन्तु प्रकृति जड़रूप् और सत्त्व-रज-तममय अर्थात सगुण है। इस विषय पर अधिक विचार आगे किया जायेगा। यहाँ सिर्फ यही विचार करना है कि सांख्य-वादियों का मत क्या है। जब हम इस प्रकार ‘सूक्ष्म’ और ‘स्थूल,’ ‘व्यक्त ’ और ‘अव्यक्त’ शब्दों का अर्थ समझ लेंगे, तब कहना पड़ेगा कि सृष्टि के आरंभ में प्रत्यके पदार्थ सूक्ष्म और अव्यक्त प्रकृति के रूप् से रहता है, फिर वह (चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल हो) व्यक्त अर्थात इन्द्रिय गोचर होता है, और जब प्रलय-काल में इस व्यक्त स्वरूप का नाश होता है तब फिर वह पदार्थ अव्यक्त प्रकृति में मिलकर अव्यक्त हो जाता है। गीता में भी यह ही मत देख पड़ता है[3]। सांख्य शास्त्र में इस अव्यक्त प्रकृति ही को ‘अक्षर’ कहते हैं, और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सब पदार्थों को ‘क्षर’ कहते हैं। यहाँ ‘क्षर’ शब्द का अर्थ संपूर्ण नाश नहीं है; किन्तु सिर्फ व्यक्त स्वरूप का नाश ही अपेक्षित है। प्रकृति के और भी अनेक नाम हैं; जैसे प्रधान, गुण-क्षोभिणी, बहुधानक, प्रसव-धर्मिणी इत्यादि। सृष्टि के सब पदार्थों का मुख्य मूल होने के कारण उसे (प्रकति को) प्रधान कहते हैं। तीनों गुणों की साम्यावस्था का भंग स्वयं आप ही करती है इसलिये उसे गुण-क्षोभिणी कहते हैं। गुणत्रयरूपी पदार्थ-भेद का बीज प्रकृति में है इसलिये उसे बहुधानक कहते हैं और, प्रकृति से ही सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं इसलिये उसे प्रसव-धर्मिणी कहते हैं। इस प्रकृति ही को वेदान्त शास्त्र में ‘माया’ कहते हैं। सृष्टि के सब पदार्थों को ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ या ‘क्षर’ इन दो विभागों में बांटने के बाद, अब यह सोचना चाहिये कि, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार में बतलाये गये आत्मा, मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों को सांख्य-मत के अनुसार, किस विभाग या वर्ग में रखना चाहिये। क्षैत्र और इन्द्रियां तो जड़ ही हैं, इस कारण उनका समावेश व्यक्त पदार्थों में हो सकता है; परन्तु मन, अहंकार, बुद्धि और विशेष करके आत्मा के विषय में क्या कहा जा सकता है? यूरोप के वर्तमान समय के प्रसिद्ध सृष्टिशास्त्रज्ञ हेकल ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि मन, बुद्धि, अहंकार और आत्मा ये सब, शरीर के धर्म ही हैं। उदाहरणार्थ, हम देखते हैं कि जब मनुष्य का मस्तिष्क बिगड़ जाता है तब उसकी स्मरण-शक्ति नष्ट हो जाती है और वह पागल भी हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज