गीता रहस्य -तिलक पृ. 139

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

तथापि, पहले पहल उसी ने इन सब सिद्धान्तों को ठीक ठीक नियमानुसार लिख कर सरलतापूर्वक उनका एकत्र वर्णन अपने ‘विश्‍व की पहेली’[1] नामक ग्रन्थ में किया है। इस कारण, सुभीते के लिये, हमने उसे ही सब आधिभौतिक तत्त्वज्ञों का मुखिया माना है और उसी के मतों का, इस प्रकारण में तथा अगले प्रकरण में, विषेश उल्लेख किया है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह उल्लेख बहुत ही संक्षिप्त है, परंतु इससे अधिक इन सिद्धान्तों का विवेचन इस ग्रंथ में नहीं किया जा सकता। जिन्हें इस विषय का विस्तृत वर्णन पढ़ना हो उन्हें स्पेन्सर, डार्विन, हेकल आदि पंडितों के मूल ग्रन्थों का ही अवलोकन करना चाहिए।कपिल के सांख्यशास्‍त्र का विचार करने के पहले यह कह देना उचित होगा कि ‘सांख्य’ शब्द के दो भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं। पहला अर्थ, कपिलाचार्य द्वारा प्रतिपादित ‘सांख्यशास्‍त्र’ है। इसी का उल्लेख इस प्रकरण में, तथा एक बार भगवद्गीता[2] में भी, किया गया है।

परंतु, इस विशिष्ट अर्थ के सिवा सब प्रकार के तत्त्वज्ञान को भी सामान्यतः ‘सांख्य’ ही कहने की परिपाटी है, और इसी ‘सांख्य’ शब्द में वेदांतशास्‍त्र का भी समावेश किया जाता है। ‘सांख्यनिष्ठा’ अथवा ‘सांख्ययोग’ शब्दों में ‘सांख्य’ का यही सामान्य अर्थ अभीष्ट है। इस निष्ठा के ज्ञानी पुरुषों को भी भगवद्गीता में जहां[3] ‘सांख्य’ कहा है, वहाँ सांख्य शब्द का अर्थ केवल कापिल सांख्यमार्गी ही नहीं है, वरन् उसमें, आत्म-अनात्म-विचार से सब कर्मो का संन्यास करके ब्रह्मज्ञान में निमग्न रहने वाले वेदान्तियों का भी, समावेश किया गया है। शब्द शास्त्रों का कथन है कि ‘सांख्य’ शब्द ‘संख्या’ धातु से बना है इसलिये इसका पहला अर्थ ‘गिननेवाला’ है, और कपिल शास्त्र केमलतत्त्व इने गिने सिर्फ पच्‍चीस हीं हैं, इसलिये उसे ‘गिननेवाले’ के अर्थ में यह विशिष्ट ‘सांख्य’ नाम दिया गया; अनन्तर फिर ‘सांख्य’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक हो गया और उसमें सब प्रकार के तत्त्वज्ञान का समावेश होने लगा। यही कारण है कि जब पहले पहल कपिल-भिक्षुओं को ‘सांख्य’ कहने की परिपाटी प्रचलित हो गई, तब वेदांती संन्यासियों को भी यही नाम दिया जाने लगा होगा। कुछ भी हो; इस प्रकरण का हमने जान बूझ कर यह लम्बा चौड़ा ‘ कापिल सांख्यशास्‍त्र’ नाम इसलिये रखा है कि सांख्य शब्द के उक्त अर्थ-भेद के कारण कुछ गड़बड़ न हो।

कापिल सांख्यशास्‍त्र में भी, कणाद के न्यायशास्‍त्र के समान सूत्र हैं। परन्तु गौड़पादाचार्य या शारीर-भाष्यकार श्रीशंकराचार्य ने इन सूत्रों का आधार अपने ग्रन्‍थों में नहीं लिया है, इसलिये बहुतेरे विद्वान समझतें हैं कि ये सूत्र कदाचित प्राचीन न हों। ईश्‍वरकृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ उक्त सूत्रों से प्राचीन मानी जाती है और उस पर शंकराचार्य के दादागुरु गौड़पाद ने भाष्य लिखा है। शंकर भाष्य में भी इसी कारिका के कुछ अवतरण लिये गये हैं। सन् 570 ईस्वी से पहले इस ग्रथं का जो भाषांतर चीनी भाषा में हुआ था वह इस समय उपलब्ध है [4] [5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. The Riddle of the Universe by Ernst Haeckel, इस ग्रन्थ की R.P.A. Cheap reprint आवृति का ही हमने सर्वत्र उपयोग किया है।
  2. 18.13
  3. गी. 2.39; 3.3;5.4,5; और 13.24
  4. अब बौद्ध ग्रन्थों से ईश्‍वरकृष्ण का बहुत कुछ हाल जाना जा सकता है। बौद्ध पण्डित वसुबंधु का गुरु, ईश्‍वरकृष्ण का समकालीन प्रतिपक्षी था। वसुबन्धु का जो जीवनचरित, परमार्थ ने सन 499-569 में चीनी भाषा में लिखा था वह अब प्रकाशित हुआ है। इससे डाक्टर टक्कसू ने यह अनुमान किया है कि ईश्‍वरकृष्‍ण का समय सन 450 ई के लगभग है। Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain & Ireland, 1905 pp. 33-53. परन्तु डाक्टर विन्सेन्ट स्मिथ की राय है कि स्वयं वसुबन्धु का समय ही चौथी सदी में (अंदाजन 280-360) होना चाहिये; क्योंकि उसके ग्रन्थों का अनुवाद सन 404 इस्वी में, चीनी भाषा में हुआ है। वसुबन्धु का समय इस प्रकार जब पीछे हट जाता है, तब उसी प्रकार ईश्‍वरकृष्ण का समय भी क़रीब 200 वर्ष पीछे हटाना पड़ता है; अर्थात सन 240 ईस्वी के लगभग ईश्‍वरकृष्‍ण का समय आ पहुँचता है। Vincect Smith's Early History of India] 3rd Ed.p.328.
  5. गी.र. 20

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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