गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
इन सब बातों का विचार भगवद्गीता में किया गया है ;और अंत में, कर्मयोगशास्त्र की उपपत्ति बतलाने के लिये यह दिखलाया गया है कि मूलभूत परमात्मरूपी तत्त्व के ज्ञान से बुद्धि किस प्रकार शुद्ध हो जाती है। अतएव इस उपपत्ति को अच्छी तरह समझ लेने के लिये हमें भी उन्हीं मार्गों का अनुसरण करना चाहिये। उन मार्गो में से, ब्रहाण्ड़ -ज्ञान अथवा क्षर-अक्षर-विचार का विवेचन अगले प्रकरण में किया जायगा। इस प्रकरण में, सदसद्विवेक-देवता के यथार्थ स्वरूप् का निर्णय करने के लिये, पिण्ड-ज्ञान अथवा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो विवेचन आरम्भ किया गया था वह अधूरा ही रह गया है, इसलिये अब उसे पूरा कर लेना चाहिये। पांचभौतिक स्थूल देह, पांच कर्मेन्द्रियों, पांच ज्ञानेन्द्रियां, इन ज्ञानेन्द्रियों के शब्द स्पर्श-रूप रस-गंधात्मतक पांच विषय, संकल्प-विकल्पात्मक मन और व्यवसायात्मक बुद्धि- इन सब विषयों का विवेचन हो चुका। परन्तु, इतने ही से, शरीर संबंधी विचार की पूर्णता हो नहीं जाती। मन और बुद्धि, केवल विचार के साधन अथवा इन्द्रियां है। यदि इस जड़ शरीर में, इनके अतिरिक्त, प्राणरूपी चेतना अर्थात् हलचल न हो, तो मन और बुद्धि का होना न होना बराबर ही- अर्थात् किसी काम का नहीं- समझा जायगा। अर्थात्, शरीर में, उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त, चेतना नामक एक और तत्त्व का भी समावेश होना चाहिये। कभी कभी चेतना शब्द का अर्थ ’चैतन्य’ भी हुआ करता है; परंतु स्मरण रहे कि यहाँ पर चेतना शब्द का अर्थ ' चैतन्य नहीं माना गया है; बरन ’जड़ देह में दृग्गोचर होने वाली प्राणों की हलचल, चेष्टा या जीवितावस्था का व्यवहार’ सिर्फ यही अर्थ विवक्षित है। जिस चित्-शक्ति के द्वारा जड़ पदार्थों में भी हलचल अथवा व्यापार उत्पन्न हुआ करता है उसको चैतन्य कहते हैं; और अब, इसी शक्ति के विषय में विचार करना है। शरीर में दृग्गोचर होने वाले सजीवता के व्यापार अथवा चेतना के अतिरिक्त, जिसके कारण 'मेरा-तेरा’ यह भेद उत्पन्न होता है, वह भी एक भिन्न गुण है। इसका कारण यह है कि, उपर्युक्त विवेचन के अनुसार बुद्धि सार-असार का विचार करके केवल निर्णय करने वाली एक इन्द्रिय है, अतएव 'मेरा-तेरा’ इस भेद-भाव के मूल को अर्थात् अहंकार को उस बुद्धि से पृथक् ही मानना पड़ता है। इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व मन ही के गुण हैं; परन्तु नैय्यायिक इन्हें आत्मा के गुण समझते हैं, इसी लिये इस भ्रम को हटाने के अर्थ वेदांतशास्त्र ने इनका समावेश मन ही में किया है। इसी प्रकार जिन मूल तत्त्वों से पंचमहाभूत उत्पन्न हुए हैं उन प्रकृतिरूप् तत्त्वों का भी समावेश शरीर ही में किया जाता है[1]। जिस शक्ति के द्वारा ये सब तत्त्व स्थिर रहते हैं वह भी इन सब से न्यारी है। उसे धृति कहते हैं[2]। इन सब बातों को एकत्र करने से जो समुच्चय रूपी पदार्थ बनता है उसे शास्त्रों में सविकार शरीर अथवा क्षेत्र कहा है ;और, व्यवहार में, इसी को चलता-फिरता (सविकार) मनुष्य-शरीर अथवा पिंड कहते हैं। क्षेत्र शब्द की यह व्याख्या गीता के आधार पर की गई है ; परन्तु इच्छा-द्वेष आदि गुणों की गणना करते समय कभी इस व्याख्या में कुछ हेरफेर भी कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ, शांति पर्व के जनक-सुलभा-संवाद [3] में, शरीर की व्याख्या करते समय, पंचकर्मेन्द्रियों के बदले काल, सदसद्भाव, विधि, शुक्र और बल का समावेश किया गया है। इस गणना के अनुसार पंचकर्मेन्द्रियों को पंचमहाभूतों ही में शामिल करना पड़ता है; और , यह मानना पड़ता है कि, गीता की गणना के अनुसार, काल का अंतर्भाव आकाश में और विधि-शुक्र-बल आदिकों का अन्तर्भाव अन्य महाभूतों में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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