गीता रहस्य -तिलक पृ. 129

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

जब सिद्ध हो गया कि आधिभौतिक पक्ष एकदेशीय तथा अपूर्ण है और आधि-दैवत पक्ष की सहल युक्ति भी किसी काम की नहीं, तब यह जानना आवश्यक है कि, कर्मयोगशास्त्र की उपपत्ति ढूंढने के लिये कोई अन्य मार्ग है या नहीं? और, उत्तर भी यही मिलता है कि, हां, मार्ग है और उसी को आध्यात्मिक मार्ग कहते हैं। इसका कारण यह है कि, यद्यपि बाह्य कर्मों की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है, तथापि जब सदसद्विवेक-बुद्धि नामक स्वतंत्र और स्वयंभू देवता का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता तब, कर्मयोगशास्त्र में भी इन प्रश्नो का विचार करना आवश्यक हो जाता है कि, शुद्ध कर्म करने के लिये बुद्धि को किस प्रकार शुद्ध रखना चाहिये, शुद्ध बुद्धि किसे कहते हैं, अथवा बुद्धि को किस प्रकार शुद्ध रखना चाहिये, शुद्ध बुद्धि किसे कहते है, अथवा बुद्धि किस प्रकार शुद्ध की जा सकती है? और यह विचार, केवल बाह्य सृष्टि का विचार करने वाले आधिभौतिकशास्त्रों को छोड़े बिना, तथा अध्यात्मज्ञान में प्रवेश किये बिना, पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता।

इस विषय में हमारे शास्त्रकारों का अंतिम सिद्धांत यही है कि, जिस बुद्धि को आत्मा का अथवा परमेश्वर के सर्वव्यापी यथार्थ स्वरूप् का पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ है, वह बुद्धि शुद्ध नहीं है। गीता में अध्यात्मशास्त्र का निरूपण यही बतलाने के लिये किया गया है, कि आत्मनिष्ठ बुद्धि किसे कहना चाहिये। परन्तु, इस पूर्वापर-संबंध की ओर ध्यान ने दे कर, गीता के कुछ साम्प्रदायिक टीकाकारों ने यह निश्चय किया है, कि गीता में मुख्य प्रतिपाद्य विषय वेदांत ही है। आगे चल कर यह बात विस्तारपूर्वक बतलाई जायगी कि, गीता में प्रतिपादन किये गये विषय के सम्बंध मे उक्त टीकाकारों का किया हुआ निर्णय ठीक नहीं है। यहाँ पर सिर्फ यही बतलाना है कि, बुद्धि को शुद्ध रखने के लिये आत्मा का भी अवश्य विचार करना पड़ता है। आत्मा के विषय में यह विचार देा प्रकार से किया जाता हैः-

1. स्वयं अपने पिंड के, क्षेत्र अथवा शरीर के और मन के व्यापारों का निरीक्षण करके यह विचार करना, कि उस निरीक्षण से क्षेत्रज्ञरूपी आत्मा कैसे निष्पन्न होता है [1]। इसी को शारीरिक अथवा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार कहते हैं, और इसी कारण वेदांतसूत्रों को शारीरिक (शरीर का विचार करने वाले) सूत्र कहते हैं। स्वयं अपने शरीर और मन का इस प्रकार विचार हो जाने पर,

2. जानना चाहिये कि, उस विचार से निष्पन्न होने वाला तत्त्व, और हमारे चारों ओर की दृश्य-सृष्टि अर्थात् ब्रहाण्ड के निरीक्षण से निष्पन्न होने वाला तत्त्व, दोनों एक ही हैं अथवा भिन्न भिन्न हैं। इस प्रकार किये गये सृष्टि के निरीक्षण को क्षर-अक्षर-विचार अथवा व्यक्त-अव्यक्त-विचार कहते हैं। सृष्टि के सब नाशवान् पदार्थो में जो सारभूत नित्यतत्त्व है उसे ’अक्षर’ या ’अव्यक्त’ कहते हैं [2]। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार और क्षर-अक्षर-विचार से प्राप्त होने वाले इन दोनों तत्त्वों का फिर से विचार करने पर प्रगट होता है कि ये दोनों तत्त्व जिससे निष्पन्न हुए हैं, और इन दोनों के परे जो सब का मूलभूत एक तत्त्व है, उसी को ’परमात्मा’ अथवा ’पुरुषोत्तम’ कहते हैं [3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. अ. 13
  2. गी. 8, 21; 15. 16
  3. गी. 8. 20

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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