गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
इन्द्रियनिग्रह के इस कार्य का वर्णन करने के लिये उक्त दृष्टांत इतना अच्छा है कि ग्रीस के प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता प्लेटो ने भी, इन्द्रियनिग्रह का वर्णन करते समय, इसी रूपक का उपयोग अपने ग्रंथ में किया है [1] भगवद्गीता में, यह दृष्टांत प्रत्यक्ष रूप् से नहीं पाया जाता; तथापि इस विषय के संदर्भ की ओर जो ध्यान देगा उसे यह बात अवश्य मालूम हो जायगी कि,गीता के उपर्युक्त श्लोकों में इन्द्रियनिग्रह का वर्णन इस दृष्टांत को लक्ष्य करके ही किया गया हैं। सामान्यतः अर्थात् जब शास्त्रीय सूक्ष्म भेद करने की आवश्यकता नहीं होती तब, उसी को मनोनिग्रह भी कहते हैं। परन्तु जब ’मन’ और ’बुद्धि’ में, जैसा कि ऊपर कह आये हैं, भेद किया जाता है तब निग्रह करने का कार्य मन को नहीं किंतु व्यवसायात्मक बुद्धि को ही करना पड़ता है। इस व्यवसायात्मक बुद्धि को शुद्ध करने के लिये, पातंजल-योग की समाधि से, भक्ति से, ज्ञान से अथवा ध्यान से परमेश्वर के यथार्थ स्वरूप् को पहचान कर, यह तत्त्व पूर्णतया बुद्धि मे भिद जाना चाहिये कि ’सब प्राणियों में एक ही आत्मा है।' इसी को आत्मनिष्ठ बुद्धि कहते हैं। इस प्रकार जब व्यवसायात्मिक बुद्धि आत्मनिष्ठ हो जाती है, और मनोनिग्रह की सहायता से मन और इन्द्रियां उसकी अधीनता में रह कर आज्ञानुसार आचरण करना सीख जाती है; तब इच्छा, वासना आदि मनोधर्म (अर्थात् वासनात्मक बुद्धि) आप ही आप शुद्ध और पवित्र हो जाते हैं, और शुद्ध सात्त्विक कर्मों की ओर देहेन्द्रियों की सहज ही प्रवृति होने लगती है। अध्यात्म की दृष्टि से यही सब सदाचरणों की जड़ अर्थात् कर्मयोगशास्त्र का रहस्य है। ऊपर किये गये विवेचन से पाठक समझ जावेंगे कि, हमारे शास्त्रकारों ने मन और बुद्धि की स्वाभाविक वृतियों के अतिरिक्त सदसद्विवेक-शक्तिरूप् स्वतंत्र देवता का अस्तित्व क्यों नहीं माना है। उनके मतानुसार भी मन या बुद्धि का गौरव करने के लिये इन्हें ’देवता’ कहने में कोई हर्ज नहीं है; परन्तु तात्विक दृष्टि से विचार करके उन्होंने निश्चित सिद्धांत किया है कि जिसे हम मन या बुद्धि कहते हैं उससे भिन्न और स्वयंभू ’ सतां हि संदेहपदेषु.’ वचन के ’सतां’ पद की उपयुक्तता और महत्ता भी अब भली-भाँति प्रगट हो जाती है। जिनके मन शुद्ध और आत्मनिष्ठ हैं, वे यदि अपने अन्तःकरण की गवाही ले, तो कोई अनुचित बात न होगी; अथवा यह भी कहा जा सकता है कि, किसी काम को करने के पहले उनके लिये यही उचित है कि वे अपने मन को अच्छी तरह शुद्ध करके उसी की गवाही लिया करें। परन्तु, यदि कोई चोर कहने लगे कि’ मैं भी इसी प्रकार आचरण करता हूं’ तो यह कदापि उचित न होगा। क्योंकि, दोनों की सदसद्विवेचन-शक्ति एक ही सी नहीं होती- सत्पुरुषों की बुद्धि सात्त्विक और चोरों की तामसी होती है। सारांश, आधिदैवत पक्षवालों का ’सदसद्विवेक-देवता’ तत्त्वज्ञान की दृष्टि से स्वतंत्र देवता सिद्ध नहीं होता; किंतु हमारे शास्त्रकारों का सिद्धांत है कि वह तो व्यवसायात्मक बुद्धि के स्वरूपों ही में से एक आत्मनिष्ठ अर्थात् सात्त्विक स्वरूप् है। और, जब यह सिद्धांत स्थिर हो जाता है, तब आधिदैवत पक्ष आप ही आप कमज़ोर हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ फीडस. 246
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज