गीता रहस्य -तिलक पृ. 127

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

प्रवृतिं च निवृतिं च कार्याकार्ये भयाभये । बंधं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।

अर्थात “सात्त्विक बुद्धि वह है कि जिसे इन बातों का यथार्थ ज्ञान है;- कौन सा काम करना चाहिये, और कौन सा नहीं, कौन सा काम करने योग्य है और कौन सा अयोग्य, किस बात से डरना चाहिये और किस बात से नहीं, किसमें बंधन है और किसमें मोक्ष’’[1]। इसके बाद यह बतलाया है किः-

यया धर्ममधर्मे च कार्ये चाकार्यमेव च । अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः या पार्य राजसी ।।

अर्थात् “धर्म और अधर्म, अथवा कार्य और अकार्य, का यथार्थ निर्णय जो बुद्धि नहीं कर सकती यानि जो बुद्धि हमेशा भूल किया करती है, वह राजसी है’’ (18.31)। और अंत में, कहा हैं किः-

अधर्मे धर्मामिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।।

अर्थात’’ अधर्म को ही धर्म मानने वाली, अथवा सब बातों का विपरीत या उलटा निर्णय करने वाली, बुद्धि तामसी कहलाती है’’[2]। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि, केवल भले-बुरे का निर्णय करने वाली, अर्थात् सदसद्विवेक बुद्धि रूप स्वतंत्र और भिन्न देवता, गीता को सम्मत नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सदैव ठीक ठीक निर्णय करने वाली बुद्धि हो ही नहीं सकती। उपर्युक्त श्लोकों का भावार्थ यही है कि, बुद्धि एक ही है; और ठीक ठीक निर्णय करने का सात्त्विक गुण, उसी एक बुद्धि पूर्व संस्कारों के कारण, शिक्षा से तथा इन्द्रियनिग्रह अथवा आहार आदि के कारण, उत्पन हो जाता है; और, इन पूर्व संस्कार प्रभृति कारणों के अभाव से ही, वह बुद्धि, जैसे कार्य-अकार्य-निर्णय के विषय में वैसे ही अन्य दूसरी बातों में भी, राजसी अथवा तामसी हो सकती है। इस सिद्धांत की सहायता से भली-भाँति मालूम हो जाता है कि, चोर और साह की बुद्धि में, तथा भिन्न भिन्न देशों के मनुष्यों की बुद्धि में, भिन्नता क्यों हुआ करती है। परन्तु जब हम सदसद्विवेचन-शक्ति को स्वतंत्र देवता मानते हैं, तब उक्त विषय की उपपत्ति ठीक ठीक सिद्ध नहीं होती। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपनी बुद्धि को सात्त्विक बनावे। यह काम इन्द्रियनिग्रह के बिना हो नहीं सकता।

जब तक व्यवसायात्मक बुद्धि यह जानने में समर्थ नहीं है कि मनुष्य का हित किस बात में है और जब तक वह उस बात का निर्णय या परीक्षा किये बिना ही इन्द्रियों के इच्छानुसार आचरण करती रहती है, तब तक वह बुद्धि ‘शुद्ध’ नहीं कही जा सकती। अतएव बुद्धि को मन और इन्द्रियों के अधीन नहीं होने देना चाहिये; किन्तु ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे मन और इन्द्रियां बुद्धि के अधीन रहें। भगवद्गीता[3] में यही सिद्धांत अनेक स्थानों में बतलाया गया है; और यही कारण है कि कठोरनिषद में शरीर को रथ की उपमा दी गई है तथा यह रूपक बांधा गया है कि उस शरीररूपी रथ में जुते हुए इन्द्रियरूपी घोड़ों को विषयोपभोग के मार्ग में अच्छी तरह चलाने के लिये (व्यवसायात्मक) बुद्धिरूपी सारथी को मनोमय लगाम धीरता से खींचे रहना चाहिये [4]महाभारत [5] में भी वही रूपक दो तीन स्थानों में, कुछ हेरफेर के साथ, लिया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 18.30
  2. गी. 18.32
  3. 2.67; 68; 3.7; 41; 6. 24-26
  4. कठ. 3.3-9
  5. वन. 210, 25; स्त्री. 7.13, अश्व. 51.5

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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