गीता रहस्य -तिलक पृ. 126

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
छठवाँ प्रकरण

अब पाठकों के ध्यान में यह बात आजायगी कि, गीताशास्त्र में ‘बुद्धि’ शब्द के उपर्युक्त दोनों अर्थों पर और उन अर्थों के परस्पर संबंध पर, ध्यान रखना कितने महत्त्व का है। इस बात का वर्णन हो चुका है कि, मनुष्य के अन्तःकरण के व्यापार किस प्रकार हुआ करते हैं तथा उन व्यापारों को देखते हुए मन और बुद्धि के कार्य कौन कौन से हैं, तथा बुद्धि शब्द के कितने अर्थ होते हैं। अब, मन और व्यवसायात्मिक बुद्धि को इस प्रकार पृथक कर देने पर, देखना चाहिये कि सदसद्विवेक-देवता का यथार्थ रूप क्या है। इस देवताका काम, सिर्फ भले-बुरे का चुनाव करना है; अतएव इसका समावेश ‘मन’ में नहीं किया जा सकता। और, किसी भी बात का विचार करके निर्णय करने वाली व्यवसायात्मक बुद्धि केवल एक ही है, इसलिये सदसद्विवेकरूप ‘देवता’ के लिये कोई स्वतंत्र स्थान ही नहीं रह जाता! हां, इसमें संदेह नहीं कि जिन बातों का या विषयों का सार-असार-विचार करके निर्णय करना पड़ता है वे अनेक और भिन्न भिन्न हो सकते हैं।

जैसे व्यापार, लड़ाई, फौजदारी या दीवानी मुकदमे, साहूकारी, कृषि आदि अनेक व्यवसायों में हर मौके पर सार-असार-विवेक करना पड़ता है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि व्यवसायात्मिक बुद्धियां भी भिन्न भिन्न अथवा कई प्रकार की होती हैं। सार-असार-विवेक नाम की क्रिया सर्वत्र एक ही सी है; और, इसी कारण, विवेक अथवा निर्णय करने वाली बुद्धि भी एक ही होनी चाहिये। परन्तु मन के सदृशबुद्धि भी शरीर का धर्म है, अतएव पूर्व कर्म के अनुसार, पूर्वपरंपरागत या आनुवांशिक संस्कारों के कारण अथवा शिक्षा आदि अन्य कारणों से, यह बुद्धि कम या अधिक सात्त्विकी, राजसी या तामसी हो सकती है यही कारण है कि, जो बात किसी एक की बुद्धि में ग्राह्य प्रतीत होती है वही दूसरे की बुद्धि में अग्राह्य जांचती है। इतने ही से यह नहीं समझ लेना चाहिये, कि बुद्धि नाम की इन्द्रिय ही प्रत्येक समय, भिन्न भिन्न रहती है। आंख ही का उदाहरण लीजिये। किसी की आंखे तिरछी रहती है तो किसी की भद्दी और किसी की कानी; किसी की दृष्टि मंद और किसी की साफ रहती है इससे हम यह कभी नहीं कहते कि नेत्रेन्द्रिय एक नहीं अनेक हैं।

यही न्याय बुद्धि के विषयमें भी उपयुक्त होना चाहिये। जिस बुद्धि से चावल अथवा गेहुं छाने-बीने जाते है; जिस बुद्धि से पत्थर और हीरे का भेद जाना जाता है; जिस बुद्धि से काले-गौरे या मीठे-कडुवे का ज्ञान होता है; वही बुद्धि इन सब बातों के तारतम्य का विचार करके अंतिम निर्णय भी किया करती है कि भय किसमें है और किसमें नहीं, सत् और असत् क्या है, लाभ और हानि किसे कहते हैं, धर्म अथवा अधर्म और कार्य अथवा अकार्य में क्या भेद है, इत्यादि। साधारण व्यवहार में ‘मनोदेवता’ कहकर उसका चाहे जितना गौरव किया जाय, तथापि तत्त्वज्ञान की दृष्टि से वह एक ही व्यवसायात्मक बुद्धि है। इसी अभिप्राय की ओर ध्यान देकर, गीता के अठारहवें अध्याय में, एक ही बुद्धि के तीन भेद (सात्त्विक, राजस और तामस) करके, भगवान ने अर्जुन को पहले यह बतलाया है किः-

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः