गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
शास्त्र के अनुसार इच्छा या वासना मन के धर्म होने के कारण उन्हें बुद्धि शब्द से सम्बोधित करना युक्त नहीं है। परन्तु बुद्धि शब्द की शास्त्रीय जांच होने के पहले ही से सर्वसाधारण लोगों के व्यवहार में शब्द का उपयोग उन दोनों अर्थों में होता चला आया हैः 1. निर्णय करने वाली इन्द्रिय; और 2. उस इन्द्रिय के व्यापार से मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली वासना या इच्छा। अतएव, आम के भेद बतलाने के समय जिस प्रकार ‘पेड़’ और ‘फल’ इन शब्दों का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार जब बुद्धि के उक्त दोनों अर्थों की भिन्नता व्यक्त करनी होती है, तब निर्णय करने वाली अर्थात शास्त्रीय बुद्धि को ‘व्यवसायात्मिक’ विशेषण जोड़ दिया जाता है और वासना को केवल ‘बुद्धि’ अथवा ‘वासनात्मक’ बुद्धि कहते हैं। गीता [1] में ‘बुद्धि’ शब्द का उपयोग उपर्युक्त दोनों अर्थों में किया गया है। कर्मयोग के विवेचन को ठीक ठीक समझ लेने के लिये ‘बुद्धि’ शब्द के उपर्युक्त दोनों अर्थों पर हमेशा ध्यान रखना चाहिये। जब मनुष्य कुछ काम करने लगता है तब उसके मनोव्यापार का क्रम इस प्रकार होता है- पहले वह ‘व्यावसायिक’ बुद्धिन्द्रिय से विचार करता है कि यह कार्य अच्छा है या बुरा, करने के योग्य है या नहीं; और फिर इस कर्म के करने की इच्छा या वासना अर्थात (वासनात्मक बुद्धि) उत्पन्न होती है। और तब वह उक्त काम करने के लिये प्रवृत हो जाता है। कार्य- अकार्य का निर्णय करना जिस (व्यवसायिक) बुद्धीन्द्रिय का व्यापार है, वह यदि स्वस्थ और शांत हो, तो मन में निरर्थक अन्य वासनाएं (बुद्धि) उत्पन्न नहीं होने पातीं । [2] और मन भी बिगड़ने नहीं पाता। अतएव [3] में कर्मयोगशास्त्र का प्रथम सिद्धांत यह है, कि पहले व्यवसायात्मिक बुद्धि को शुद्ध और स्थिर रखना चाहिये। केवल गीता ही में नहीं, किंतु कान्ट[4] ने भी बुद्धि के इसी प्रकार दो भेद किये हैं और शुद्ध अर्थात व्यवसायात्मक बुद्धि के एवं व्यावहारिक अर्थात वासनात्मक बुद्धि के, व्यापारों का विवेचन दो स्वतंत्र ग्रंथों में किया है। वस्तुतः देखने से तो यही प्रतीत होता है कि, व्यवसायात्मिक बुद्धि को स्थिर करना पातंजल योगशास्त्र ही का विषय है, कर्मयोगशास्त्र का नहीं। किन्तु गीता का सिद्धांत है कि, कर्म का विचार करते समय उसके परिणाम की ओर ध्यान न देकर, पहले सिर्फ यही देखना चाहिये कि कर्म करने वाले की वासना अर्थात वासनात्मक बुद्धि कैसी है[5]। और, इस प्रकार जब वासना के विषय में विचार किया जाता है तब प्रतीत होता है कि, जिसकी व्यवसायात्मिक बुद्धि स्थिर और शुद्ध नहीं रहती, उसके मन में वासनाओं की भिन्न भिन्न तरंगें उत्पन्न हुआ करती हैं, और इसी कारण कहा नहीं जा सकता कि, वे वासनाएं सदैव शुद्ध और पवित्र ही होंगी [6]। जबकि वासनाएं ही शुद्ध नहीं है तब आगे कर्म भी शुद्ध कैसे हो सकता है? इसीलिये कर्मयोगशास्त्र में भी, व्यवसायात्मक बुद्धि को शुद्ध रखने के लिये, साधनों अथवा उपायों का विस्तारपूर्वक विचार करने की आवश्यकता होती है; और इसी कारण भगवद्गीता के छठें अध्याय में, बुद्धि को शुद्ध करने के लिये एक साधन के तौर पर, पातंजलयोग का विवेचन किया गया है। परन्तु, इस संबंध पर ध्यान न देकर, कुछ सांप्रदायिक टीकाकारों ने गीता का यह तात्पर्य निकाला है कि, गीता में केवल पातंजलयोग का ही प्रतिपादन किया गया है! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.41, 44,49; और 3.42
- ↑ गीर. 18
- ↑ गीता 2.41
- ↑ *कान्ट ने व्यवसायात्मिक बुद्धि को Pure Reason और वासनात्मक बुद्धि को Practical Reason कहा है।
- ↑ गी. 2.46
- ↑ गी. 2.41
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