गीता रहस्य -तिलक पृ. 124

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
छठवाँ प्रकरण


आत्मा बुद्धया समेत्याअर्थान् भनो युंक्ते विवक्षया । मनः कायाग्रिमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।। मारुतस्तूरसि चरन् मंद्रं जनयति स्वरम् ।।

अर्थात् “पहले आत्मा बुद्धि के द्वारा सब बातों का आकलन करके मन में बोलने की इच्छा उत्पन्न करता है; और जब मन कायाग्नि को उसकाता है तब कायाग्नि वायु को प्रेरित करती है। तदनन्तर यह वायु छाती में प्रवेश करके मंद स्वर उत्पन करती है।’’ यही स्वर आगे कंठ-तालु आदि के वर्ण-भेद-रूप से मुख के बाहर आता है। उक्त श्लोक के अंतिम दो चरण मैत्रयुपनिषद में भी मिलते हैं[1]; और, इससे प्रतीत होता है कि ये श्लोक पाणिनि से भी प्राचीन है[2]। आधुनिक शरीर शास्त्रों में कायाग्नि को ही मज्जातन्तु कहते हैं। परन्तु पश्चिमी शरीर शास्त्रज्ञों का कथन है कि मन भी दो हैं; क्योंकि बाहर के पदार्थो का ज्ञान भीतर लाने वाले और मन के द्वारा बुद्धि की आज्ञा कर्मेन्द्रियों को जतलाने वाले मज्जातन्तु, शरीर में, भिन्न भिन्न हैं।

हमारे शास्त्रकार दो मन नहीं मानते; उन्होंने मन और बुद्धि को भिन्न बतला कर सिर्फ यह कहा है कि मन उभयात्मक है, अर्थात वह-कर्मेन्द्रियों के साथ कर्मेन्द्रियों के समान और ज्ञानेन्द्रियों के साथ ज्ञानेन्द्रियों के समान काम करता है। दोनों का तात्पर्य एक ही है। दोनों की दृष्टि से यही प्रगट है कि, बुद्धि निश्‍चय कर्ता न्यायाधीश है, और मन पहले ज्ञानेन्द्रियों के साथ संकल्प-विकल्पात्मक हो जाया करता है तथा फिर कर्मेन्द्रियों के साथ व्याकरणात्मक या कारवाई करने वाला अर्थात कर्मेन्द्रियों का साक्षात प्रवर्तक हो जाता है किसी बात का ‘व्याकरण’ करते समय कभी कभी मन यह संकल्प-विकल्प भी किया करता है कि बुद्धि की आज्ञा का पालन किस प्रकार किया जाये। इसी कारण मन कि व्याख्या करते समय सामान्यतः सिर्फ यही कहा जाता है कि ‘संकल्प-विकल्पात्मकं मनः’। परन्तु, ध्यान रहे कि, उस समय भी इस व्याख्या में मन के दोनों व्यापारों का समावेश किया जाता है।

‘बुद्धि’ का जो अर्थ ऊपर किया गया है, कि वह निर्णय करने वाली इन्द्रिय है, वह अर्थ केवल शास्त्रीय और सूक्ष्म विवेचन के लिये उपयोगी है। परन्तु इन शास्त्रीय अर्थों का निर्णय हमेशा पीछे से किया जाता है। अतएव यहाँ ‘बुद्धि’ शब्द के उन व्यावहारिक अर्थों का भी विचार करना आवश्यक है जो इस शब्द के सम्बन्ध में, शास्त्रीय अर्थ निश्चित होने के पहले ही, प्रचलित हो गये हैं। जब तक व्यवसायात्मक बुद्धि किसी बात का पहले निर्णय नहीं करती तब तक हमें उसका ज्ञान नहीं होता; और जब तक ज्ञान नहीं हुआ तब तक उसके प्राप्त करने की इच्छा या वासना भी नहीं हो सकती। अतएव, जिस प्रकार व्यवहार में आम के पेड़ और फल के लिये एक ही शब्द ‘आम’ का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार व्यवसायात्मक बुद्धि के लिये और उस बुद्धि के वासना आदि फलों के लिये भी एक ही शब्द ‘बुद्धि’ का उपयोग व्यवहार मे कई बार किया जाता है। उदाहरणार्थ, जब हम कहते हैं कि अमुक मनुष्य की बुद्धि खोटी है तब हमारे बोलने का यह अर्थ होता है कि उसकी ‘वासना’ खोटी है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैत्रयु. 7.11
  2. मेक्समूलर साहब ने लिखा है कि मैत्रयुपनिषद, पाणिनि की अपेक्षा, प्राचीन होना चाहिये। Sacred Books of the East Series, Vol.15.pp.27-2.इस पर परिशिष्ठ प्रकरण में अधिक विचार किया गया है

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः