गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
इच्छा अथवा धैर्य आदि गुण बुद्धि के धर्म नहीं हैं, इसलिये बुद्धि स्वयं (अर्थात् बिना मन की सहायता लिये ही) कभी इन्द्रियों को प्रेरित नहीं कर सकतीं। यदि क्रोध आदि वृत्तियां के वश में होकर स्वयं मन ही इन्द्रियों को प्रेरित कर भी सके, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि, बुद्धि के सार-असार-विचार के बिना ही, केवल मनोवृतियों की प्रेरणा से किया गया काम नीति की दृष्टि से शुद्ध ही रहता है। उदाहरणार्थ, यदि बुद्धि का उपयोग न कर, केवल करुणावृत्ति से कुछ दान किया जाय तो संभव है कि वह किसी अपात्र को दे दिया जावे और उसका परिणाम भी बुरा हो। सारांश यह है, कि बुद्धि की सहायता के बिना केवल मनोवृत्तियां अंधी हैं। अतएव मनुष्य का कोई काम शुद्ध तभी हो सकता है जबकि बुद्धि शुद्ध हो, अर्थात वह भले-बुरे का अचूक निर्णय कर सके; मन बुद्धि के सिवा ‘अंतःकरण’ और ‘चित’ ये दो शब्द भी प्रचलित हैं। इनमें से ‘अंतःकरण’ शब्द का धात्वर्थ ‘भीतरी करण अर्थात् इन्द्रिय’ है, इसलिये उसमें मन, बुद्धि, चित, अहंकार आदि सभी का सामान्यतः समावेश किया जाता है; और तब वही ‘चित्त’ हो जाता है [1]। परन्तु सामान्य व्यवहार में इन सब शब्दों का अर्थ एक ही सा माना जाता है इस कारण समझ मे नहीं आता कि किस स्थान पर कौन सा अर्थ विवक्षित है। इस गड़बड़ को दूर करने के लिये ही, उक्त अनेक शब्दों में से, मन और बुद्धि इन्हीं दो शब्दों का उपयोग, शास्त्रीय परिभाषा में ऊपर कहे गये निश्चित अर्थ मे किया जाता है। जब इस तरह मन और बुद्धि का भेद एक बार निश्चित कर लिया जाये तब, न्यायाधीश के समान, बुद्धि को मन से श्रेष्ठ मानना पड़ता है; और मन उस न्यायाधीश (बुद्धि) का मुंशी बन जाता है।“मनसस्तु परा बुद्धिः’’- इस गीता-वाक्य का भावार्थ भी यही है कि मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ एवं उसके परे है [2]। तथापि, जैसा कि ऊपर कह आये हैं, इस मुंशी को भी दो प्रकार के काम करने पड़ते हैः- 1. ज्ञानेंन्द्रियों द्वारा अथवा बाहर से आये हुए संस्कारों की व्यवस्था करके उनको बुद्धि के सामने निर्णय के लिये उपस्थित करना; और 2. बुद्धि का निर्णय हो जाने पर उसकी आज्ञा अथवा डाक कर्मेन्द्रियों के पास भेजकर बुद्धि का हेतु सफल करने के लिये आवश्यक बाह्य क्रिया करवाना। जिस तरह दुकान के लिये माल खरीदने का काम और दुकान में बैठकर बेचने का काम भी, कहीं कहीं, उस दुकान के एक ही नौकर को करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी दुहरा काम करना पड़ता है। मान लो कि, हमें एक मित्र देख पड़ा और उसे पुकारने की इच्छा से हमने उसे ’अरे’ कहा। अब देखना चाहिये कि इतने समय में, अन्तःकरण में कितने व्यापार होते हैं। पहले आंखों ने अथवा ज्ञानेन्द्रियों ने यह संस्कार मन के द्वारा बुद्धि को भेजा कि हमारा मित्र पास ही है, और बुद्धि के द्वारा उस संस्कार का ज्ञान आत्मा को हुआ। यह हुई ज्ञान होने की क्रिया। तब आत्मा बुद्धि के द्वारा यह निश्चय करता है कि मित्र को पुकारना चाहिये; और, बुद्धि के इस हेतु के अनुसार काररवाई करने के लिये मन में बोलने की इच्छा उत्पन्न होती है और मन हमारी जिह्वा कर्मेन्द्रिय से ‘अरे!’ शब्द का उच्चारण करवाता है। पाणिनि के शिक्षा-ग्रन्थ में शब्दोच्चारण क्रिया का वर्णन इसी बात को ध्यान में रख कर किया गया है:- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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