गीता रहस्य -तिलक पृ. 118

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

उदाहरणार्थ, एक स्त्री के रहते हुए दूसरी स्त्री के साथ विवाह करना विलायत में दोष समझा जाता है; परन्तु हिंदुस्थान में यह बात विशेष दूषणीय नहीं मानी जाती। भरी सभा में सिर की पगड़ी उतारना हिंदु लोगों के लिये लज्जा या अमर्यादा की बात है; परन्तु अंग्रेज लोग सिर की टोपी उतारना ही सभ्यता का लक्षण मानते हैं। यदि यह बात सच है कि, ईश्वरदत्त या स्वाभाविक सदसद्विवेचन-शक्ति के कारण ही बुरे कर्म करने में शर्म मालूम होती है, तो क्या सब लोगों को वही कृत्य करने में शर्म नहीं मालूम होनी चाहिये बड़े बड़े लुटेरे और डाकू लोग भी, एक बार जिसका नमक खा चुके [1]है उस पर, हथियार उठाना निंद्य मानते हैं; किन्तु बड़े बडे़ सभ्य पश्चिमी राष्ट्र भी अपने पड़ोसी राष्ट का वध करना स्वदेशभक्ति का लक्षण समझते हैं। यदि सदसद्विवेचन- शक्तिरूप देवता एक ही है तो यह भेद क्यों माना जाता है? और, यदि यह कहा जाय कि शिक्षा के अनुसार अथवा देश के चलन के अनुसार सदसद्विवेचन-शक्ति में भी भेद हो जाया करते हैं, तो उसकी स्वयंभू नित्यता में बाधा आ जाती है।

मनुष्य ज्यों ज्यों अपनी असभ्य दशा को छोड़कर सभ्य बनता जाता है, त्यों-त्यों उसके मन और बुद्धि का विकास होने पर, जिन बातों का विचार वह अपनी पहली असभ्य अवस्था में नहीं कर सकता था, उन्हीं बातों का विचार अब वह अपनी सभ्य दशा में शीघ्रता से करने लग जाता है अथवा यह कहना चाहिये कि, इस प्रकार बुद्धि का विकसित होना ही सभ्यता का लक्षण है।यह, सभ्य अथवा सुशिक्षित मनुष्य के इन्द्रियनिग्रह का परिणाम है,कि वह औरों की वस्तु को ले लेने या मांगने की इच्छा नहीं करता। इसी प्रकार मन की वह शक्ति भी, जिससे बुरे-भले का निर्णय किया जाता है, धीरे धीरे बढ़ती जाती है; और कुछ कुछ बातों में तो वह इतनी परिपक्क हो गई है कि उनके विषय में कुछ विचार किये बिना ही हम लोग अपना नैतिक निर्णय किया करते हैं।

जब हमें आंखों से कोई दूर या पास की वस्तु देखनी होती है तब आंखों की नसों को उचित परिमाण से खींचना पड़ता है; और यह क्रिया इतनी शीघ्रता से होती है कि हमें उसका कुछ बोध भी नहीं होता। परन्तु क्या इतने ही से किसी ने इस बात की उपपत्ति को निरूपयोगी मान रखा है? सारांश यह है कि, मनुष्य की बुद्धि या मन सब समय और सब कार्यों में एक ही है। यह बात यथार्थ नहीं कि काले-गोरे का निर्णय एक प्रकार की बुद्धि करती है और बुरे-भले का निर्णय किसी अन्य प्रकार की बुद्धि से किया जाता है। केवल अन्तर इतना ही है कि किसी में बुद्धि कम रहती है और किसी की अशिक्षित अथवा अपरिपक्व रहती है। उक्त भेद की ओर, तथा इस अनुभव की ओर भी उचित ध्यान देकर कि किसी काम को शीघ्रतापूर्वक कर सकना केवल आदत या अभ्यास का फल है, पश्चिमी आधिभौतिक वादियों ने यह निश्‍चय किया है कि, मन की स्वाभाविक शक्तियों से परे सदसद्विविचार- शक्ति नामक किसी दूसरी निराली, स्वतंत्र और विलक्षण शक्ति के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. र. 17

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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