गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
इसलिये यह मानना चाहिये कि सदसद्विवेचन-शक्ति भी एक स्वतंत्र मानसिक देवता है सब मनुष्यों के अंतःकरण में यह देवता या शक्ति एक ही सी जागृत रहती है इसलिये हत्या करना सभी लोगों को दोष प्रतीत होता है; और उसके विषय मे किसी को कुछ सिखलाना भी नहीं पड़ता। इस आधिदैविक युक्तिवाद पर आधिभौतिक पंथ के लोगों का यह उत्तर है कि, सिर्फ़ “हम एक-आध बात का निर्णय एकदम कर सकते हैं’’ इतने ही से यह नहीं माना जा सकता कि, जिस बात का निर्णय विचारपूर्वक किया जाता है वह उससे भिन्न है। किसी काम को जल्दी अथवा धीरे करना अभ्यास पर अवलम्बित है। उदाहरणार्थ, गणित का विषय लीजिये। व्यापारी लोग मन के भाव से, सेर-छटाक के दाम एकदम मुखाग्र गणित की रीति से बतला सकते है; इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि गुणाकार करने की उनकी शक्ति या देवता किसी अच्छे गणितज्ञ से भिन्न है। कोई काम, अभ्यास के कारण, इतना अच्छी तरह सध जाता है कि, बिना विचार किये ही कोई मनुष्य उसको शीघ्र और सरलतापूर्वक कर लेता है। उत्तम लक्ष्यभेदी मनुष्य उड़ते हुए पक्षियों को बन्दूक से सहज मार गिराता है, इससे कोई भी यह नहीं कहता कि लक्ष्यभेद एक स्वतंत्र देवता है। इतना ही नहीं; किंतु निशाना मारना, उड़ते हुए पक्षियों की गति को जानना इत्यादि शास्त्रीय बातों को भी कोई निरर्थक और त्याज्य नहीं कह सकता। नेपोलियन के विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि, जब वह समरांगण में खड़ा होकर चारों और सूक्ष्म दृष्टि से देखता था, तब उसके ध्यान में यह बात एकदम आ जाया करती थी कि शत्रु किस स्थान पर कमज़ोर है इतने ही से किसी ने यह सिद्धान्त नहीं निकाला है कि युद्धकला एक स्वतंत्र देवता है और उसका अन्य मानसिक शक्तियों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं इसमें संदेह नहीं कि, किसी एक काम में किसी की बुद्धि स्वभावतः अधिक काम देती है और किसी की कम; परन्तु सिर्फ इस असमानता के आधार पर ही हम यह नहीं कहते कि दोनों की बुद्धि वस्तुतः भिन्न है। इसके अतिरिक्त यह बात भी सत्य नहीं कि, कार्य-अकार्य का अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय एकाएक हो जाता है। यदि ऐसा ही होता, तो यह प्रश्न ही कभी उपस्थित न होता कि “अमुक काम करना चाहिये अथवा नहीं करना चाहिये’’। यह बात प्रगट है कि, अर्जुन के समान, इस प्रकार का प्रश्न प्रसंगानुसार सभी लोगों के सामने उपस्थित हुआ करता है; और, कार्य- अकार्य-निर्णय के कुछ विष्यों में, भिन्न भिन्न लोगों के अभिप्राय भी भिन्न भिन्न हुआ करते हैं यदि सदसद्विवेचनरूप स्वयम्भू देवता एक ही है, तो फिर यह भिन्नता क्यों है अर्थात् यही कहना पड़ता है कि, मनुष्य की बुद्धि जितनी सुशिक्षित अथवा सुसंस्कृत होगी, उतनी ही योग्यतापूर्वक वह किसी बात का निर्णय करेगा। बहुतेरे जंगली लोग ऐसे भी हैं कि जो मनुष्य का वध करना अपराध या दोष नही मानते; इतना ही नहीं, किन्तु वे मारे हुए मनुष्य का मांस भी सहर्ष खा जाते हैं। जंगली लोगों की बात जाने दीजिये। सभ्य देशों में भी यह देखा जाता है कि, देश के चलन के अनुसार किसी एक देश में जो बात ग्राह्य समझी जाती है, वही किसी दूसरे देश में सर्वमान्य रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज