गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
संन्यास मार्ग के समान कर्मयोग मार्ग भी वैदिक धर्म में अनादि काल से स्वतंत्रतापूर्वक चला आ रहा है और इस मार्ग के संचालकों ने वेदान्त तत्त्वों को न छोड़ते हुए कर्म-शास्त्र की ठीक ठीक उपपत्ति भी दिखलाई है। भगवद्गीता ग्रंथ इसी पंथ का है। यदि गीता के छोड़ दें, तो भी जान पड़ेगा कि अध्यात्म-दृष्टि से कार्य- अकार्य- शास्त्र के विवेचन [1]करने की पद्धति ग्रीन सरोखे ग्रंथकार द्वारा खुद इंग्लैण्ड में ही शुरू कर दी गई है[2]; और जर्मनी में तो इससे भी पहले यह पद्धति प्रचलित थी। दृश्य सृष्टि का कितना भी विचार करो; परन्तु जब तक यह बात ठीक ठीक मालूम नहीं हो जाती, कि इस सृष्टि को देखने वाला और कर्म करने वाला कौन है, तब तक तात्विक दृष्टि से इस विषय का भी विचार पूरा हो नहीं सकता, कि इस संसार में मनुष्य का परम साध्य, श्रेष्ठ कर्तव्य या अंतिम ध्येय क्या है। इसीलिये याज्ञवल्क्य का यह उपदेश, कि“आत्मा चा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः’’ प्रस्तुत विषय में भी अक्षरश: उपर्युक्त होता है। दृश्य जगत् की परीक्षा करने से यदि परोपकार सरीखे तत्त्व ही अन्त में निष्पन्न होते हैं , तो इससे आत्मविद्या का महत्त्व कम तो होता ही नहीं, किन्तु उलटा उससे सब प्राणियों में एक ही आत्मा के होने का एक और सुबूत मिल जाता है। इस बात के लिये तो कुछ उपाय ही नहीं है, कि आधिभौतिक- वादी अपनी बनाई हुई मर्यादा से स्वयं बाहर नहीं जा सकते। परन्तु हमारे शास्त्रकारी की दृष्टि से ही कर्मयोगशास्त्र की पूरी उपपत्ति दी है। इस उपपत्ति की चर्चा करने के पहले कर्म-अकर्म परीक्षा के एक और पूर्व पक्ष का भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक है, इसलिये अब उसी पंथ का विवेचन किया जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. र. 16
- ↑ Prolegomena to Ethics, Book 1: Kant’s Metaphtysics of Morals (trans. By Abbot in Kant’s Theory of Ethics).
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