गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 52

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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मनुष्य को योगारूढ़ होने के लिये क्या करना चाहिये?

स्वयं को आप ही अपना उद्धार करना चाहिये, अपना पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह आप ही आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।।5।।

स्वयं अपना मित्र और अपना शत्रु कैसे है?
जिसने अपने आपसे अपने पर विजय कर ली अर्थात् जो असत् के साथ सम्बन्ध नहीं मानता, वह आप ही अपना मित्र है और जिसने अपने पर विजय नहीं की अर्थात् जो असत् के साथ अपना सम्बन्ध मानता है, वह आप ही अपना शत्रु है।।6।।

आप ही अपना मित्र होने से क्या होगा?
जिसने अपने-आपको जीत लिया है, वह प्रारब्ध के अनुसार आनेवाली अनुकूलता-प्रतिकूलता में वर्तमान में किये जानेवाले कर्मों की सफलता-विफलता में तथा दूसरों के द्वारा किये गये मान-अपमान में निर्विकार रहता है। अतः उसको परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।।7।।

परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के क्या लक्षण हैं भगवन्?
उसका अन्तःकरण सदा ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है; उसका सम्पूर्ण इन्द्रियों पर अधिकार रहता है; वह सभी परिस्थितियों में निर्विकार रहता है; मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में उसकी समबुद्धि रहती है, ऐसा योगी समतायुक्त कहा जाता है। केवल पदार्थों में ही नहीं, सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु और पापी व्यक्तियों में भी जिसकी समबुद्धि रहती है। ऐसा वह समबुद्धि वाला मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है।।8-9।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

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