जब दोनों का फल एक ही होता है तो फिर कर्मयोग श्रेष्ठ कैसे है?
हे महाबाहो! कर्मयोग के बिना अर्थात् सिद्धि-असिद्धि में सम हुए बिना सांख्ययोग का सिद्ध होना (समरूप् स्वरूप में स्थित होना) कठिन है। परन्तु मननशील कर्मयोगी (सिद्धि-असिद्धि में सम होकर) शीर्घ ही समरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।।6।।
वह कर्मयोग से ब्रह्म को कैसे प्राप्त कर लेता है?
इन्द्रियों को जीवने वाला, निर्मल अन्तःकरण वाला, शरीर को वश में करने वाला तथा सम्पूर्ण प्राणियों में अपने-आपको स्थित देखनेवाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी कर्मों से लिप्त नहीं होता अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।।7।।
संख्ययोगी कर्मो से कैसे निर्लिप्त रहता है?
सत्-असत् के तत्त्व को जानकर सत् में स्थित रहने वाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता, खाता, जाता, सोता, श्वास लेता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, ग्रहण करता, आँखो को खोलता और मीचता हुआ भी 'इंद्रियाँ ही अपने-अपने विषयों में बरत रही हैं' ऐसा समझता है और 'मै (स्वयम्) कुछ भी नहीं करता हूँ' ऐसा अनुभव करके कर्मो से निर्लिप्त रहता है॥8-9॥
कर्मयोगी और सांख्ययोगी-दोनों ही कर्मों से निर्लिप्त रहते हैं। ऐसे निर्लिप्त रहने का और भी कोई उपाय है क्या?
हाँ, भक्तियोग है। भक्तियोगी आसक्ति का त्याग करके तथा सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् में अपर्ण करके कर्म करता है। अतः वह भी जल में कमल के पत्ते की तरह पापों से, कर्मों से लिप्त नहीं होता।।10।।
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