गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 17

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होनेपर छोटे सरोवर का कोई महत्त्व नहीं रहता, कोई जरूरत नहीं रहती, ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में सम्पूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है, अर्थात् उनके मन में संसार का, भोगों का कोई महत्त्व नहीं रहता।।46।।

मेरे लिये ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हाँ, कर्मयोग है। तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं अर्थात् तू फल की इच्छा न रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन अर्थात् जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि में भी ममता न रख।

तो फिर मैं कर्म करूँ ही क्यों?
कर्म न करने में भी तेरी आसक्ती नहीं होनी चाहिये॥47॥

तो फिर कर्म करूँ कैसे?
सिद्धि-असिद्धि में सम होना ‘योग’ कहलाता है, इसलिये हे धनञ्जय! तू आसक्ति का त्याग करके योग (समता) में स्थित होकर कर्म कर।।48।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
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अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
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अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

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