तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिये?
नहीं भैया, जो युद्ध आप-से-आप प्राप्त हो जाय, सामने आ जाय वह युद्ध तो क्षत्रिय के लिये स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिये हे पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रियों को प्राप्त होता है, वे ही वास्तव में सुखी हैं[1]।।32।।
ऐसे आप-से-आप प्राप्त युद्ध को मैं न करूँ, तो?
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षात्र धर्म का और तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तेरे को कर्तव्यपालन न करने का पाप भी लगेगा।।33।।
अपकीर्ति से क्या होगा?
अरे भैया! तू युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। वह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होती है[2]।।34।।
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