गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 126

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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उन आसुरी सम्पत्ति वाले के कर्म कैसे होते हैं?
उपर्युक्त नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेने वाले वे लोग अपने नित्य स्वरूप (आत्म) को नहीं मानते, उनकी बुद्धि तुच्छ होती है, उनके कर्म अत्यन्त उग्र (भयानक) होते हैं, वे जगत् के शत्रु होते हैं। ऐसे मनुष्यों की सामर्थ्य दूसरों का नाश करने के लिये ही होती है।

वे कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले तथा अपवित्र नियमों को धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण अनेक दुराग्रहों को पकड़कर संसार में विचरते रहते हैं।।9-10।।

उनके भाव कैसे होते हैं?
वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली बड़ी-बड़ी चिन्ताओं का आश्रय लेते हैं। वे पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और ‘जो कुछ है, वह इतना (सुख भोगना और संग्रह करना) ही है’- ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।।19।।

वे किस उद्देश्य को लेकर चलते हैं भगवन्?
सैकड़ों आशाओं की फाँसियों से बँधे हुए वे मनुष्य काम और क्रोध के परायण होकर केवल भोग भोगने के उद्देश्य से ही अन्याय-पूर्वक धन का संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं।।12।।

उनके मनोरथ कैसे होते हैं?
आज इतना धन तो हमने प्राप्त कर लिया और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन और हो जायगा। उस शत्रु को तो हमने मार दिया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं, सिद्ध हैं, बलवान् हैं, सुखी हैं और भोगों को भोगने वाले हैं हम बड़े धनवान् हैं। बहुत-से मनुष्य हमारा साथ देने वाले हैं। हमारे समान दूसरा कौन हो सकता है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और फिर मौज करेंगे। इस तरह वे अज्ञान से मोहित होकर मनोरथ करते रहते हैं।।13-15।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

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