इस दैवी और आसुरी सम्पत्ति का क्या फल होता है भगवन्?
दैवी सम्पत्ति मुक्ति देने वाली और आसुरी सम्पत्ति बाँधने वाली होती है। परन्तु हे पाण्डव! तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये; क्योंकि तुम दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो।।5।।
आसुरी सम्पत्ति बन्धनकारक कैसे होती है?
इस लोक में दो तरह के प्राणियों की सृष्टि है- दैवी और आसुरी। दैवी सम्पत्ति को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तुम आसुरी सम्पत्ति को विस्तार से सुनो। आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये-इसको नहीं जानते तथा उनमें न तो शौचाचार (बाह्य शुद्धि) होता है, न सदाचार (श्रेष्ठ आचरण) होता है और न सत्य-पालन ही होता है।।6-7।।
उनमें शौचाचार आदि क्यों नहीं होते हैं भगवन्?
उनकी दृष्टि ही विपरीत होती है। वे यही कहते हैं कि यह संसार असत्य है अर्थात् इसमें कोई भी बात (शास्त्र, धर्म आदि) सत्य नहीं है। इस संसार में धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि की कोई मर्यादा नहीं है। इस संसार को रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु स्त्री को पुरुष की ओर पुरुष को स्त्री की इच्छा हुई तो दोनों के संयोग से यह संसार पैदा हो गया। इसलिये इस संसार की उत्पत्ति का हेतु काम ही है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं है।।8।।
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