गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 108

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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इस तरह प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को जानने से क्या होता है?
इस तरह गुणों के सहित प्रकृति को और गुणरहित पुरुष को जो मनुष्य ठीक-ठीक जान लेता है, उसका सब तरह के शास्त्रविहित बर्ताव (कर्तव्यकर्म) करते हुए भी फिर जन्म नहीं होता अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।।23।।

उस पुरुष को जानने का और भी कोई उपाय है क्या?
हाँ, है। कई मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आपमें अपने स्वरूप को जान लेते हैं।।24।।

और भी कोई सरल उपाय है क्या?
हाँ, है। जो मनुष्य ध्यानयोग, सांख्ययोग आदि साधनों को नहीं जानते, केवल जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा के परायण हो जाते हैं, वे भी मृत्यु को तर जाते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।।25।।

वे मृत्यु को कैसे तर जाते हैं भगवन्?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावन और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के माने हुए संयोग से ही पैदा होते हैं- ऐसा तू समझ। इसलिये क्षेत्र के साथ अपना संयोग न मानने से वे तर जाते हैं, जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं।।26।।

इस संयोग से छूटने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये?
दो बातें करनी चाहिये-स्वतःसिद्धि परमात्मा के सम्बन्ध को पहचानना और प्रकृति (शरीर) से सम्बन्ध तोड़ना। विषम संसार में जो समरूप से स्थित है और नष्ट होने वालों में जो अविनाशीरूप से स्थित है तथा जो परम ईश्वर है- ऐसे अपने परम स्वरूप को जो देखता है, वही वास्तव में सही देखता है अर्थात् उसको वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो जाता है। सब जगह समानरूप से परिपूर्ण परमात्मा के साथ एकता होने से शरीर के साथ तादात्म्य का अभाव हो जाता है। फिर वह अपनेद्वारा अपनी हत्या नहीं करता अर्थात् शरीर मरने से अपना मरना नहीं मानता। इसलिये वह परमगति (परमात्मा) को प्राप्त हो जाता है।।27-28।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
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अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
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अध्याय 18 153

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