कुमार आदि अवस्थाएँ शरीर की होती हैं, यह तो ठीक है, पर अनुकूल-प्रतिकूल, सुखदायी-दुःखदायी पदार्थ सामने आ जायँ, तब क्या करें भगवन्?
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों के जितने विषय (जड़ पदार्थ) हैं, वे सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं। परन्तु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिये हे अर्जुन! उनको तुम सहन करो अर्थात् उनमें तुम निर्विकार रहो।।14।।
उनको सहने से, उनमें निर्विकार रहने से क्या लाभ होता है?
हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःख में समान (निर्विकार) रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियों के विषय (जड़ पदार्थ) सुखी-दुःखी नहीं करते, वह स्वतःसिद्ध अमरता- (परमात्मा की प्राप्ति) का अनुभव कर लेता है।।15।।
वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है?
सत् (चेतन तत्त्व) की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् (जड़ पदार्थों) की सत्ता नहीं है- इन दोनों के तत्त्व को तत्त्वदर्शी (ज्ञानी) महापुरुष जान लेते हैं, इसलिये वे अमर हो जाते हैं।।16।।
वह सत् (अविनाशी) क्या है भगवन्?
जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो। इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता।।17।।
असत् (विनाशी) क्या है भगवन्?
इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहने वाले शरीरी के ये सब शरीर अन्तवाले हैं, विनाशी हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य-कर्म का पालन करो।।18।।
युद्ध में तो मरना-मारना ही होता है; इसलिये अगर शरीरी को मरने-मारने वाला मानें, तो?
जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इसको मारनेवाला मानता है, वे दोनों ही ठीक नहीं जानते; क्योंकि यह न किसी को मारता है और न स्वयं मारा जाता है।।19।।
यह शरीर मरने वाला क्यों नही है भगवन्?
यह शरीरी न तो कभी पैदा होता है और न कभी मरता ही है। यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। जह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।।20।।
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