गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:। हे अर्जुन! इस प्रकार जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म का रहस्य जानता है वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म नहीं पाता, बल्कि मुझे पाता है। टिप्पणी- क्योंकि जब मनुष्य का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ईश्वर सत्य की ही जय कराता है तब वह सत्य को नहीं छोड़ता, धीरज रखता है, दु:ख सहन करता है और ममतारहित रहने के कारण जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर ईश्वर का ही ध्यान धरते हुए उसी में लय हो जाता है। वीतरागभयक्रोधा मन्नया मामुपाश्रिता:। राग, भय और क्रोध से रहित हुए मेरा ही ध्यान धरते हुए, मेरा ही आश्रय लेने वाले ज्ञानरूपी तप से पवित्र हुए बहुतों ने मेरे स्वरूप को पाया है। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। जो जिस प्रकार मेरा आश्रय लेते हैं, उस प्रकार मैं उन्हें फल देता हूँ। चाहे जिस तरह भी हो, हे पार्थ! मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं, मेरे शासन में रहते हैं। टिप्प्णी- तात्पर्य, कोई ईश्वरी नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता। जैसा बोता है, वैसा काटता है; जैसा करता है, वैसा भरता है, ईश्वरी कानून में कर्म के नियम में अपवाद नहीं है। सबको समान अर्थात अपनी योग्यता के अनुसार न्याय मिलता है। कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:। कर्म की सिद्धि चाहने वाले इस लोक में देवताओं को पूजते हैं। इससे उन्हें कर्मजनित फल तुरंत मनुष्य-लोक में ही मिल जाता है। टिप्पणी- देवता से मतलब स्वर्ग में रहने वाले इंद्र-वरुणादि व्यक्तियों से नहीं है। देवता का अर्थ है ईश्वर की अंशरूपी शक्ति। इस अर्थ में मनुष्य भी देवता है। भाप, बिजली आदि महान शक्तियां देवता हैं। उनकी आराधना करने का फल तुरंत और इसी लोक में मिलता हुआ हम देखते हैं। वह फल क्षणिक होता है। वह आत्मा को ही संतोष नहीं देता तो मोक्ष तो दे ही कहाँ से सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज