गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। हे भरतर्षभ ! इसलिए तू पहले तो इंद्रियों को नियम में रखकर ज्ञान और अनुभव का नाश करने वाले इसी पापी का त्याग अवश्य कर। इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:। इंद्रियां सूक्ष्म हैं, उनसे अधिक सूक्ष्म मन है, उससे अधिक सूक्ष्म बुद्धि है। जो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है वह आत्मा है। टिप्प्णी- तात्पर्य यह कि यदि इंद्रियां वश में रहें तो सूक्ष्म काम को जीतना सहज हो जाय। एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। इस प्रकार बुद्धि से परे आत्मा को पहचानकर और आत्मा द्वारा मन को वश में करके, हे महाबाहो! कामरूप दुर्जय शत्रु का संहार कर। टिप्प्णी- यदि मनुष्य शरीरस्थ आत्मा को जान ले तो मन उसके वश में रहेगा, इंद्रियों के वश में नही रहेगा। और मन जीता जाय तो काम क्या कर सकता है? ॐतत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद् अर्थात ब्रह्म-विद्यान्तर्गत योगशास्त्र के श्री कृष्णार्जुनसंवाद का ʻकर्मयोग̕ नामक तीसरा अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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