गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 90

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग


सदृशं चेष्‍टते स्‍वस्‍या: प्रकृतेज्ञनिवानपि।
प्रकृति यान्ति भू‍तानि निग्रह: किं करिष्‍यति।।33।।

ज्ञानी भी अपने स्‍वभाव के अनुसार बरतते हैं, प्राणीमात्र अपने स्‍वभाव का अनुसरण करते हैं, वहाँ बलात्‍कार क्‍या कर सकता है।

टिप्‍पणी- यह श्‍लोक दूसरे अध्‍याय के 61 वें या 68 वें श्‍लोक का विरोधी नहीं है। इंद्रियों का निग्रह करते-करते मनुष्‍य को मर मिटना है, लेकिन फिर भी सफलता न मिले तो निग्रह अर्थात बलात्‍कार निरर्थक है। इसमें निग्रह की निंदा नहीं की गई है, स्‍वभाव का साम्राज्‍य दिखाया गया है। ʻयह तो मेरा स्‍वभाव है̕, यह कहकर कोई खोटाई करने लगे तो वह इस श्‍लोक का अर्थ नहीं समझता। स्‍वभाव का हमें पता नहीं चलता। जितनी आदतें है सब स्‍वभाव नहीं हैं। आत्‍मा का स्‍वभाव ऊर्ध्‍व- गमन है। अत: आत्मा जब नीचे की ओर जाये तब उसका प्रतिकार करना कर्त्तव्‍य है। इसी से नीचे का श्‍लोक स्‍पष्‍ट करता है।

इन्द्रियस्‍येन्द्रियस्‍यार्थे रागद्वेषौ व्‍यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्‍छेतौ ह्यस्‍य परिपन्थिनौ।।34।।

अपने-अपने विषयों के संबंध में इंद्रियों को राग-द्वेष रहता ही है। मनुष्‍य को उनके वश न होना चाहिए, क्‍योंकि वे मनुष्‍य के मार्ग के बाधक हैं।

टिप्‍पणी- कान का विषय है सुनना। जो भावे, वह सुनने की इच्‍छा राग है। जो न भावे, वह सुनने की अनिच्‍छा द्वेष है। ʻयह तो स्‍वभाव है̕ कहकर राग-द्वेष के वश ही नहीं होना चाहिए, उनका मुकाबला करना चाहिए। आत्‍मा का स्‍वभाव सुख-दु:ख से अछूते रहना है। उस स्‍वभाव तक मनुष्‍य को पहुँचना है।

श्रेयान्‍स्‍वधर्मो विगुण: परधर्मात्‍स्‍वनुष्ठितात्।
स्‍वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।35।।

पराये धर्म के सुलभ होने पर भी उससे अपना धर्म विगुण हो तो भी अधिक अच्‍छा हे। स्‍वधर्म में मृत्‍यु भली है। परधर्म भयावह है।

टिप्‍पणी- समाज में एक धर्म झाड़ देने का होता है और दूसरे का धर्म हिसाब रखने का होता है। हिसाब रखने वाला भले ही श्रेष्‍ठ गिना जाय, परंतु झाड़ू देने वाला अपना धर्म त्‍याग दे तो वह भ्रष्‍ट हो जायगा और समाज को हानि पहुँचेगी। ईश्वर के दरबार में दोनों की सेवा का मूल्‍य उनकी निष्‍ठा के अनुसार कूता जायगा। पेशे की कीमत वहाँ तो एक ही होती है। दोनों ईश्‍वरर्पण बुद्धि से अपना कर्त्तव्‍य-पालन करें तो समान-रूप से मोक्ष के अधिकारी बनते हैं।

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्‍तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्‍छन्‍नपि वार्ष्‍णेय बलादिव नियोजित:।।36।।

अर्जुन बोले- फिर यह पुरुष बलात्‍कारपूर्वक प्रेरित हुए की भाँति, न चाहता हुआ भी, किस की प्रेरणा से पाप करता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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