गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्ञनिवानपि। ज्ञानी भी अपने स्वभाव के अनुसार बरतते हैं, प्राणीमात्र अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं, वहाँ बलात्कार क्या कर सकता है। टिप्पणी- यह श्लोक दूसरे अध्याय के 61 वें या 68 वें श्लोक का विरोधी नहीं है। इंद्रियों का निग्रह करते-करते मनुष्य को मर मिटना है, लेकिन फिर भी सफलता न मिले तो निग्रह अर्थात बलात्कार निरर्थक है। इसमें निग्रह की निंदा नहीं की गई है, स्वभाव का साम्राज्य दिखाया गया है। ʻयह तो मेरा स्वभाव है̕, यह कहकर कोई खोटाई करने लगे तो वह इस श्लोक का अर्थ नहीं समझता। स्वभाव का हमें पता नहीं चलता। जितनी आदतें है सब स्वभाव नहीं हैं। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्व- गमन है। अत: आत्मा जब नीचे की ओर जाये तब उसका प्रतिकार करना कर्त्तव्य है। इसी से नीचे का श्लोक स्पष्ट करता है। इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। अपने-अपने विषयों के संबंध में इंद्रियों को राग-द्वेष रहता ही है। मनुष्य को उनके वश न होना चाहिए, क्योंकि वे मनुष्य के मार्ग के बाधक हैं। टिप्पणी- कान का विषय है सुनना। जो भावे, वह सुनने की इच्छा राग है। जो न भावे, वह सुनने की अनिच्छा द्वेष है। ʻयह तो स्वभाव है̕ कहकर राग-द्वेष के वश ही नहीं होना चाहिए, उनका मुकाबला करना चाहिए। आत्मा का स्वभाव सुख-दु:ख से अछूते रहना है। उस स्वभाव तक मनुष्य को पहुँचना है। श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। पराये धर्म के सुलभ होने पर भी उससे अपना धर्म विगुण हो तो भी अधिक अच्छा हे। स्वधर्म में मृत्यु भली है। परधर्म भयावह है। टिप्पणी- समाज में एक धर्म झाड़ देने का होता है और दूसरे का धर्म हिसाब रखने का होता है। हिसाब रखने वाला भले ही श्रेष्ठ गिना जाय, परंतु झाड़ू देने वाला अपना धर्म त्याग दे तो वह भ्रष्ट हो जायगा और समाज को हानि पहुँचेगी। ईश्वर के दरबार में दोनों की सेवा का मूल्य उनकी निष्ठा के अनुसार कूता जायगा। पेशे की कीमत वहाँ तो एक ही होती है। दोनों ईश्वरर्पण बुद्धि से अपना कर्त्तव्य-पालन करें तो समान-रूप से मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। अर्जुन उवाच अर्जुन बोले- फिर यह पुरुष बलात्कारपूर्वक प्रेरित हुए की भाँति, न चाहता हुआ भी, किस की प्रेरणा से पाप करता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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