गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 9

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
तीसरा अध्‍याय


भगवान बोले, ʻʻमनुष्य को पापकर्म की ओर ढकेल ले जाने वाला 'काम' है और 'क्रोध' है। दोनों सगे भाई की भाँति हैं, काम की पूर्ति के पहले ही क्रोध आ धमकता है। काम-क्रोध वाला रजोगुणी कहलाता है। मनुष्य के महान शत्रु ये ही हैं। इनसे नित्य लड़ना है। जैसे मैल चढ़ने से दर्पण धुंधला हो जाता है, या अग्नि धुएं के कारण ठीक नहीं जल पाती और गर्भ झिल्ली में पड़े रहने तक घुटता रहता है, उसी प्रकार काम-क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को प्रज्वलित नहीं होने देते, फीका कर देते हैं, या दबा देते हैं। काम अग्नि के समान विकराल है और इंद्रिय, मन, बुद्धि सब पर अपना काबू करके मनुष्य को पछाड़ देता है। इसलिए तू इंद्रियों से पहले निपट, फिर मन को जीत, तो बुद्धि तेरे अधीन रहेगी, क्योंकि इंद्रियां, मन और बुद्धि यद्यपि क्रमश: एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर हैं, तथापि आत्मा उन सबसे बहुत बढ़ा-चढ़ा है। मनुष्य को आत्मा की अपनी शक्ति का पता नहीं है, इसीलिए वह मानता है कि इंद्रियां वश में नही रहती, मन वश में नहीं रहता या बुद्धि काम नहीं करती। आत्मा की शक्ति का विश्वास होते ही बाकी सब आसान हो जाता है। इंद्रियों को, मन और बुद्धि को ठिकाने रखने वाले का काम, क्रोध या उनकी असंख्य सेना कुछ नहीं कर सकती।

इस अध्याय को मैंने गीता समझने की कुंजी कहा है। एक वाक्य में उसका सार यह जान पड़ता है कि जीवन सेवा के लिए है, भोग ने लिए नहीं है। अत: हमें जीवन को यज्ञमय बना डालना उचित है, पर इतना जान लेने भर से वैसा हो जाना संभव नहीं हो जाता। जानकर आचरण करने पर हम उत्तरोत्तर शुद्ध होते जायेंगे। पर सच्ची सेवा क्या है, यह जानने को इंद्रिय-दमन आवश्यक है। इस प्रकार उत्तरोत्तर हम सत्य रूपी परमात्मा के निकट होते जाते हैं। युग-युग में हमें सत्य की अधिक झांकी होती है। स्वार्थ-दृष्टि से होने वाला सेवा कार्य यज्ञ नहीं रह जाता। अत: अनासक्ति की बड़ी आवश्ययकता है। इतना जानने पर हमें इधर-उधर के वाद-विवादों में नहीं उलझना पड़ता।

भगवान ने अर्जुन को क्या सचमुच ही स्वजनों को मारने को शिक्षा दी? क्या उसमें धर्म था? ऐसे प्रश्न आते रहते हैं। अनासक्ति आने पर यों ही हमारे हाथ में किसी को मारने को छुरी हो तो वह भी छूट जाती है, पर अनासक्ति का ढोंग करने से वह नहीं आती। हमारे प्रयत्न पर वह आज आ सकती है अथवा, संभव है, हजारों वर्ष तक प्रयत्न करते रहने पर भी न आवे। इसका भी फिकर छोड़ देना चाहिए। प्रयत्न में ही सफलता है। यह हमें सूक्ष्मता से जांचते रहना चाहिए कि प्रयत्न वास्तव में हो रहा है या नहीं। इसमें आत्मा को धोखा नहीं देना चाहिए और इतना ध्यान रखना तो सभी के लिए संभव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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