गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
तीसरा अध्याय
इस अध्याय को मैंने गीता समझने की कुंजी कहा है। एक वाक्य में उसका सार यह जान पड़ता है कि जीवन सेवा के लिए है, भोग ने लिए नहीं है। अत: हमें जीवन को यज्ञमय बना डालना उचित है, पर इतना जान लेने भर से वैसा हो जाना संभव नहीं हो जाता। जानकर आचरण करने पर हम उत्तरोत्तर शुद्ध होते जायेंगे। पर सच्ची सेवा क्या है, यह जानने को इंद्रिय-दमन आवश्यक है। इस प्रकार उत्तरोत्तर हम सत्य रूपी परमात्मा के निकट होते जाते हैं। युग-युग में हमें सत्य की अधिक झांकी होती है। स्वार्थ-दृष्टि से होने वाला सेवा कार्य यज्ञ नहीं रह जाता। अत: अनासक्ति की बड़ी आवश्ययकता है। इतना जानने पर हमें इधर-उधर के वाद-विवादों में नहीं उलझना पड़ता। भगवान ने अर्जुन को क्या सचमुच ही स्वजनों को मारने को शिक्षा दी? क्या उसमें धर्म था? ऐसे प्रश्न आते रहते हैं। अनासक्ति आने पर यों ही हमारे हाथ में किसी को मारने को छुरी हो तो वह भी छूट जाती है, पर अनासक्ति का ढोंग करने से वह नहीं आती। हमारे प्रयत्न पर वह आज आ सकती है अथवा, संभव है, हजारों वर्ष तक प्रयत्न करते रहने पर भी न आवे। इसका भी फिकर छोड़ देना चाहिए। प्रयत्न में ही सफलता है। यह हमें सूक्ष्मता से जांचते रहना चाहिए कि प्रयत्न वास्तव में हो रहा है या नहीं। इसमें आत्मा को धोखा नहीं देना चाहिए और इतना ध्यान रखना तो सभी के लिए संभव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज