गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 83

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग


न हि कश्चित्‍क्षणमपि जातु तिष्‍ठत्‍यकर्मकृत
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।।5।।

वास्‍तव में कोई एक क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। प्रकृति से उत्‍पन्‍न हुए गुण परवश पड़े प्रत्‍येक मनुष्‍य से कर्म कराते हैं।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्‍य य आस्‍ते मनसा स्‍मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्‍मा मिथ्‍याचार: स उच्यते।।6।।

जो मनुष्‍य कर्म करने वाली इंद्रियों को रोकता है, परंतु उन- उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन मन से करता है, वह मूढ़ात्‍मा मिथ्‍याचारी कहलाता है।

टिप्‍प्‍णी- जैसे, जो वाणी को तो रोकता है; पर मन में किसी को गाली देता है, वह निष्‍कर्म नहीं है; वल्कि मिथ्‍याचारी है। इसका यह तात्‍पर्य नहीं है कि जब तक मन न रोका जा सके तब तक शरीर को रोकना निरर्थक है। शरीर को रोके बिना मन पर अंकुश आता ही नहीं। परंतु शरीर के अंकुश के सा‍थ- साथ मन पर अंकुश रखने का प्रयत्‍न होना ही चाहिए। जो लोग भय या ऐसे बाहरी कारणों से शरीर को रोकते हैं, परंतु मन को नहीं रोकते, इतना ही नहीं, बल्कि मन से तो विषय भोगते हैं, और मौका पाने पर शरीर से भी भोगने में नहीं चूकते, ऐसे मिथ्‍याचारी की यहाँ निंदा है। इसके आगे का श्‍लोक इससे उलटा भाव दरसाता है।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्‍यारमतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्‍त: स विशिष्‍यते।।7।।

परंतु हे अर्जुन ! इंद्रियों को मन के द्वारा नियम में रखते हुए संगरहित होकर कर्म करने वाली इंद्रियों द्वारा कर्म-योग का आरम्‍भ करता है वह श्रेष्‍ठ पुरुष है।

टिप्‍पणी- इसमें बाहर और भीतर का मेल साधा गया है। मन को अंकुश में रखते हुए भी मनुष्‍य शरीर द्वारा अर्थात कर्मन्द्रियों द्वारा कुछ-न-कुछ तो करेगा ही; परंतु जिसका मन अंकुश में है उसके कान दूषित बातें नहीं सुनेंगे, वरन् ईश्वर- भजन सुनेंगे, सत्‍पुरुषों की वाणी सुनेंगे। जिसका मन अपने वश में है वह जिसे हम लोग विषय मानते हैं, उसमें रस नहीं लेता। ऐसा मनुष्‍य आत्मा को शोभा देने वाले ही कर्म करेगा। ऐसे कर्मों का करना कर्म-मार्ग है। जिसके द्वारा आत्‍मा का शरीर के बंधन से छूटने का योग सधे उसका नाम कर्मयोग है। इसमें विषया-सक्ति को स्‍थान हो ही नहीं सकता।

नियतं कुरु कर्म त्‍वं कर्म ज्‍यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।8।।

इसलिए तू नियत कर्म कर। कर्म न करने से कर्म करना अधिक अच्‍छा है। तेरे शरीर का व्‍यापार भी कर्म बिना नहीं चल सकता।

टिप्‍पणी- ʻ'नियत'ʼ शब्‍द मूल श्‍लोक में है। उसका संबंध पिछले श्‍लोक से है। उसमें मन द्वारा इंद्रियों को नियम में रखते हुए संगरहित होकर कर्म करने वाले की स्‍तुति है। अत: यहाँ नियत कर्म का अर्थात इंद्रियों को नियम में रखकर किये जाने- वाले कर्म का अनुरोध किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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