गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत वास्तव में कोई एक क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। प्रकृति से उत्पन्न हुए गुण परवश पड़े प्रत्येक मनुष्य से कर्म कराते हैं। कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। जो मनुष्य कर्म करने वाली इंद्रियों को रोकता है, परंतु उन- उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन मन से करता है, वह मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। टिप्प्णी- जैसे, जो वाणी को तो रोकता है; पर मन में किसी को गाली देता है, वह निष्कर्म नहीं है; वल्कि मिथ्याचारी है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जब तक मन न रोका जा सके तब तक शरीर को रोकना निरर्थक है। शरीर को रोके बिना मन पर अंकुश आता ही नहीं। परंतु शरीर के अंकुश के साथ- साथ मन पर अंकुश रखने का प्रयत्न होना ही चाहिए। जो लोग भय या ऐसे बाहरी कारणों से शरीर को रोकते हैं, परंतु मन को नहीं रोकते, इतना ही नहीं, बल्कि मन से तो विषय भोगते हैं, और मौका पाने पर शरीर से भी भोगने में नहीं चूकते, ऐसे मिथ्याचारी की यहाँ निंदा है। इसके आगे का श्लोक इससे उलटा भाव दरसाता है। यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारमतेऽर्जुन। परंतु हे अर्जुन ! इंद्रियों को मन के द्वारा नियम में रखते हुए संगरहित होकर कर्म करने वाली इंद्रियों द्वारा कर्म-योग का आरम्भ करता है वह श्रेष्ठ पुरुष है। टिप्पणी- इसमें बाहर और भीतर का मेल साधा गया है। मन को अंकुश में रखते हुए भी मनुष्य शरीर द्वारा अर्थात कर्मन्द्रियों द्वारा कुछ-न-कुछ तो करेगा ही; परंतु जिसका मन अंकुश में है उसके कान दूषित बातें नहीं सुनेंगे, वरन् ईश्वर- भजन सुनेंगे, सत्पुरुषों की वाणी सुनेंगे। जिसका मन अपने वश में है वह जिसे हम लोग विषय मानते हैं, उसमें रस नहीं लेता। ऐसा मनुष्य आत्मा को शोभा देने वाले ही कर्म करेगा। ऐसे कर्मों का करना कर्म-मार्ग है। जिसके द्वारा आत्मा का शरीर के बंधन से छूटने का योग सधे उसका नाम कर्मयोग है। इसमें विषया-सक्ति को स्थान हो ही नहीं सकता। नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:। इसलिए तू नियत कर्म कर। कर्म न करने से कर्म करना अधिक अच्छा है। तेरे शरीर का व्यापार भी कर्म बिना नहीं चल सकता। टिप्पणी- ʻ'नियत'ʼ शब्द मूल श्लोक में है। उसका संबंध पिछले श्लोक से है। उसमें मन द्वारा इंद्रियों को नियम में रखते हुए संगरहित होकर कर्म करने वाले की स्तुति है। अत: यहाँ नियत कर्म का अर्थात इंद्रियों को नियम में रखकर किये जाने- वाले कर्म का अनुरोध किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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