गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 8

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
तीसरा अध्‍याय


यदि तुझ-जैसा बुद्धिमान कर्म छोड़े तो लोग भी वही करेंगे और बुद्धि-भ्रष्‍ट हो जायंगे। तुझे तो आसक्तिरहित होकर कर्त्तव्‍य करना चाहिए, जिससे लोग कर्म-भ्रष्‍ट न हों और धीरे-धीरे अनासक्‍त होना सीखें। मनुष्‍य अपने में मौजूद स्‍वाभाविक गुणों के वश होकर काम तो करता ही रहेगा। जो मूर्ख होता है वही मानता है कि ʻमैं करता हूँ। ʼ सांस लेना, यह जीव मात्र की प्रकृति है, स्‍वभाव है। आंख पर किसी मक्‍खी आदि के बैठते ही तुरंत मनुष्‍य स्‍वभावत: ही पलकें हिलाता है। उस समय नहीं कहता कि मैं सांस लेता हूं, मैं पलक हिलाता हूँ। इस तरह जितने कर्म किये जायें सब स्‍वाभाविक रीति के गुण के अनुसार क्‍यों न किये जायें? उनके लिए अहंकार क्‍या? और यों ममत्‍व रहित सहज कर्म करने का सुवर्ण मार्ग है, सब कर्म मुझे अर्पण करना और महत्‍व हटाकर मेरे निमित्त करना। ऐसा करते-करते जब मनुष्‍य में से, अहंकार-वृत्ति का, स्‍वार्थ का, नाश हो जाता है, तब उसके सारे कर्म स्‍वाभाविक और निर्दोष हो जाते हैं। वह बहुत जंजाल में से छूट जाता है। उसके लिए फिर कर्म-बंधन जैसा कुछ नहीं है और जहाँ स्‍वभाव के अनुसार कर्म हों, वहाँ बलात्‍कार से न करने का दावा करने में ही अहंकार समाया हुआ है। ऐसा बलात्‍कार करने वाला, बाहर से चाहे कर्म न करता जान पड़े, पर भीतर-भीतर तो उसका मन प्रपंच रचता ही रहता है। बाहरी कर्म की अपेक्षा यह बुरा है, अधिक बंधन-कारक है।

तो वास्‍तव में तो इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में राग-द्वेष विद्यमान ही है। कानों को यह सुनना रूचता है, वह सुनना नहीं; नाक को गुलाब के फूल की सुगंधि भाती है, मल वगैरह की दुर्गन्धि नहीं। सभी इंद्रियों के संबंध में यही बात है। इसलिए मनुष्‍य को इन राग-द्वेष रूपी दो ठगों से बचना चाहिए और इन्‍हें मार भगाना हो तो कर्मों की श्रृंखला में न पड़ें। आज यह किया, कल दूसरा काम हाथ में लिया, परसों तीसरा, यों भटकता न फिरे, बल्कि अपने हिस्‍से में जो सेवा आ जाय, उसे ईश्वर प्रीत्‍यार्थ करने को तैयार रहे। तब यह भावना उत्‍पन्‍न होगी कि हम जो करते हैं, वह ईश्वर ही कराता है। यह ज्ञान उत्‍पन्‍न होगा और अहं भाव चला जायगा। इसे स्‍वधर्म कहते हैं। स्‍वधर्म से चिपटे रहना चाहिए, क्‍योंकि अपने लिए तो वही अच्‍छा है। देखने में परधर्म अच्‍छा दिखाई दे तो भी उसे भयानक समझना चाहिए। स्‍वधर्म पर चलते हुए मृत्यु होने में मोक्ष है।

भगवान के राग-द्वेषरहित होकर किये जाने वाले कर्म को यज्ञ रूप बतलाने पर अर्जुन ने पूछा, ʻʻमनुष्‍य किसी की प्रेरणा से पाप कर्म करता है? अक्‍सर तो ऐसा लगता है कि पाप कर्म की ओर कोई उसे जबर्दस्‍ती ढकेल ले जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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