गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
तीसरा अध्याय
मंगल प्रभात यह कह सकते हैं कि जो मनुष्य आंतरिक शांति भोगता है और संतुष्ट रहता है, उसे कोई कर्त्तव्य नहीं है, उसे कर्म करने से कोई फायदा नहीं, न करने से हानि नहीं है। किसी के संबंध में कोई स्वार्थ उसे न होने पर भी यज्ञ-कार्य को वह छोड़ नहीं सकता। इससे तू तो कर्तव्य-कर्म नित्य करता रह, पर उसमें राग-द्वेष न रख, उसमें आसक्ति न रख। जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करता है, वह ईश्वर-साक्षात्कार करता है। फिर जनक-जैसे नि:स्पृही राजा भी कर्म करते-करते सिद्धि को प्राप्त हुए, क्योंकि वे लोकहित के लिए कर्म करते थे। तो तू कैसे इससे विपरीत बर्ताव कर सकता है ? नियम ही यह है कि जैसा अच्छे और बड़े माने जाने वाले मनुष्य आचरण करते हैं, उसका अनुकरण साधारण लोग करते हैं। मुझे देख। मुझे काम करके क्या स्वार्थ साधना था? पर मैं चौबीसों घंटे, बिना थके, कर्म करता ही रहता हूँ और इससे लोग भी उसके अनुसार अल्पाधिक प्रमाण में बरतते हैं। पर यदि मैं आलस्य कर जाऊं तो जगत का क्या हो? तू समझ सकता है कि सूर्य, चंद्र तारे इत्यादि स्थिर हो जायं तो जगत का नाश हो जाय और इन सबको गति देने वाला, नियम में रखने वाला, तो मैं ही ठहरा। किंतु लोगों में और मुझमें इतना फर्क जरूर है कि मुझे आसक्ति नहीं है, लोग आसक्त हैं, वे स्वार्थ में पड़े भागते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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