गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 7

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
तीसरा अध्‍याय


इसलिए यह समझना चाहिए कि लोक-सेवा किये बिना, उनका हिस्‍सा उन्‍हें पहले दिये बिना, जो खाता है, वह चोर है और जो लोगों का, जीवमात्र का भाग उन्‍हें पहुँचाने के बाद खाता है या कुछ भोगता है, उसे वह भोगने का अधिकार है अर्थात वह पापमुक्‍त हो जाता है। इससे उलटा, जो अपने लिए ही कमाता है - मजदूरी करता है - वह पापी है और पाप का अन्‍न खाता है। सृष्टि का नियम ही यह है कि अन्‍न से जीवों का निर्वाह होता हे। अन्‍न वर्षा से पैदा होता है और वर्षा यज्ञ से अर्थात जीवमात्र की मेहनत से उत्‍पन्‍न होती है। जहाँ जीव नहीं है, वहाँ वर्षा नहीं पाई जाती; जहाँ जीव हैं वहाँ वर्षा अवश्‍य है। जीव मात्र श्रमजीवी हैं। कोई पड़े-पड़े खा नहीं सकता और मूढ़ जीवों के लिए जब यह सत्‍य है तो मनुष्‍य के लिए यह कितने अधिक अंश में लागू होना चाहिए? इससे भगवान ने कहा, कर्म को ब्रह्म ने पैदा किया। ब्रह्म की उत्‍पत्ति अक्षर-ब्रह्म से हुई, इसलिए यह समझना चाहिए कि यज्ञ मात्र में - सेवामात्‍व में - अक्षरब्रह्म, परमेश्‍वर, विराजता है। ऐसी इस प्रणाली का जो मनुष्‍य अनुसरण नहीं करता, वह पापी है और व्‍यर्थ जीता है।

मंगल प्रभात

यह कह सकते हैं कि जो मनुष्‍य आंतरिक शांति भोगता है और संतुष्‍ट रहता है, उसे कोई कर्त्तव्‍य नहीं है, उसे कर्म करने से कोई फायदा नहीं, न करने से हानि नहीं है। किसी के संबंध में कोई स्‍वार्थ उसे न होने पर भी यज्ञ-कार्य को वह छोड़ नहीं सकता। इससे तू तो कर्तव्‍य-कर्म नित्‍य करता रह, पर उसमें राग-द्वेष न रख, उसमें आसक्ति न रख। जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करता है, वह ईश्‍वर-साक्षात्‍कार करता है। फिर जनक-जैसे नि:स्‍पृही राजा भी कर्म करते-करते सिद्धि को प्राप्‍त हुए, क्‍योंकि वे लोकहित के लिए कर्म करते थे। तो तू कैसे इससे विपरीत बर्ताव कर सकता है ? नियम ही यह है कि जैसा अच्‍छे और बड़े माने जाने वाले मनुष्‍य आचरण करते हैं, उसका अनुकरण साधारण लोग करते हैं। मुझे देख। मुझे काम करके क्‍या स्‍वार्थ साधना था? पर मैं चौबीसों घंटे, बिना थके, कर्म करता ही रहता हूँ और इससे लोग भी उसके अनुसार अल्‍पाधिक प्रमाण में बरतते हैं। पर यदि मैं आलस्‍य कर जाऊं तो जगत का क्‍या हो? तू समझ सकता है कि सूर्य, चंद्र तारे इत्‍यादि स्थिर हो जायं तो जगत का नाश हो जाय और इन सबको गति देने वाला, नियम में रखने वाला, तो मैं ही ठहरा। किंतु लोगों में और मुझमें इतना फर्क जरूर है कि मुझे आसक्ति नहीं है, लोग आसक्‍त हैं, वे स्‍वार्थ में पड़े भाग‍ते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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