गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। हे पार्थ! जो पुरुष आत्मा को अविनाशी, नित्य अजन्मा और अव्यय मानता है, वह किसे, कैसे मरवाता है या किसे मारता है? 21 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए धारण करता है, वैसे देहधारी जीर्ण हुई देह को त्यागकर दूसरी नई देह पाता है। 22 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं वहति पावक:। इस (आत्मा) को शस्त्र छेदते नहीं, आग जलाती नहीं, पानी भिगोता नहीं, वायु सुखाता नहीं। 23 अच्छे़द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। यह छेदा नहीं जा सकता है, जलाया नहीं जा सकता है, न भिगोया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है। यह नित्य है, सर्वगत है, स्थिर अचल और सनातन है। 24 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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