गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
गुरुनहत्वा हि महानुभावान् महानुभाव गुरुजनों को मारने के बदले इस लोक में भिक्षान्न खाना भी अच्छा है; क्योंकि गुरुजनों को मारकर तो मुझे रक्त से सने हुए अर्थ और कामरूप भोग ही भोगने ठहरे। 5 न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो मैं नहीं जानता कि दोनों में क्या अच्छा है, हम जीतें यह, या वे हमें जीतें यह? जिन्हें मारकर मैं जीना नहीं चाहता, वे धृतराष्ट्र के पुत्र यह सामने खड़े हैं। 6 कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: कायरता से मेरी (जातीय) वृत्ति मारी गई है। मैं कर्त्तव्य- विमूढ़ हो गया हूँ। इसलिए जिसमें मेरा हित हो, वह मुझसे निश्चयपूर्वक कहने की आपसे प्रार्थना करता हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ। आपकी शरण में आया हूँ। मुझे मार्ग बतलाइए। 7 न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् इस लोक में धनधान्यसंपन्न निष्कंटक राज्य मिले और इंद्रासन मिले तो उसमें भी इंद्रियों को चूस लेने वाले मेरे शोक को दूर कर सकने-जैसा मैं कुछ नहीं देखता। 8 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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