गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 52

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना


गीता के यज्ञ में उसकी कहीं गन्‍ध तक नहीं है। उसमें तो जययज्ञ यज्ञों का राजा है। तीसरा अध्‍याय बतलाता है कि यज्ञ का अर्थ है मुख्‍य रूप से परोपकार के लिए शरीर का उपयोग। तीसरा और चौथा अध्‍याय मिलाकर दूसरी व्‍याख्‍याएं भी निकाली जा सकती हैं, पर पशु-हिंसा नहीं निकाली जा सकती। वही बात गीता के संन्‍यास के अर्थ के संबंध में है। कर्ममात्र का त्‍याग गीता के संन्‍यास को भाता ही नहीं। गीता का संन्‍यासी अतिकर्मी है, तथापि अति-अकर्मी है। इस प्रकार गीताकार ने तो महान शब्‍दों का व्‍यापक अर्थ करके अपनी भाषा का भी व्‍यापक अर्थ करना हमें सिखाया है। गीताकार की भाषा के अक्षरों से यह बात भले ही निकलती हो कि सम्‍पूर्ण कर्मफलत्‍यागी द्वारा भौतिक युद्ध हो सकता है, परन्‍तु गीता की शिक्षा को पूर्ण रूप से अमल में लाने का 40 वर्ष तक सतत प्रयत्‍न करने पर मुझे तो नम्रतापूर्वक ऐसा जान पड़ा है कि सत्‍य और अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन किये बिना सम्‍पूर्ण कर्मफल- त्‍याग मनुष्‍य के लिए असम्‍भव है।

गीता सूत्रग्रंथ नहीं है। गीता एक महान धर्म-काव्‍य है। उसमें जितना गहरे उतरिये, उतने ही उसमें से नये और सुन्‍दर अर्थ लीजिये। गीता जन-ससाज के लिए है, उसमें एक ही बात को अनेक प्रकार से कहा है। अत: गीता में आये हुए महाशब्‍दों का अर्थ युग-युग में बदलता और विस्‍तृत होता रहेगा। गीता का मूल मंत्र कभी नहीं बदल सकता। वह मंत्र जिस रीति से सिद्ध किया जा सके, उस रीति से जिज्ञासु चाहे जो अर्थ कर सकता है।

गीता विधि-निषेध बतलाने वाली भी नहीं है। एक के लिए जो विहित होता है, वही दूसरे के लिए निषिद्ध हो सकता है। एक काल या एक देश में जो विहित होता है, वह दूसरे काल में, दूसरे देश में निषिद्ध हो सकता है। निषिद्धकेवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति।

गीता में ज्ञान की महिमा सुरक्षित है, तथापि गीता बुद्धिगम्‍य नहीं है, वह हृदयगम्य है। अत: वह अश्रद्धालु के लिए नहीं है। गीताकार ने ही कहा है:
ʻʻजो तपस्‍वी नहीं है, जो भक्त नहीं है, जो सुनना नहीं चाहता और जो मेरा द्वेष करता है, उससे यह ज्ञान तू कभी न कहना।̕ ̕ [1]
ʻʻपरंतु यह परमगुह्य ज्ञान जो मेरे भक्‍तों को देगा, वह मेरी परम भक्ति करने के कारण नि:संदेह मुझे ही पावेगा।̕ ̕ [2]
ʻʻऔर जो मनुष्‍य द्वेषरहित होकर श्रद्धापूर्वक केवल सुनेगा, वह भय मुक्‍त होकर पुण्‍यमान जहाँ बसते है, उस शुभ लोक को पावेगा। ̕ ̕ [3]

(कौसानी, हिमालय)
सोमवार
आषाढ़ कृष्‍ण, 2,1986
24-6-29

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18/67
  2. 18/68
  3. 18/71

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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