गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 5

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
दूसरा अध्‍याय


यह असली युद्ध है। कोई तो विषयों से बचने को देह-दमन करता है, उपवास करता है। यह ठीक है कि उपवास-काल में इंद्रियाँ विषयों की ओर नहीं दौड़तीं, पर अकेले उपवास से रस नहीं सूख जाता। उपवास छोड़ने पर यह तो और भी बढ़ जाता है। रस को दूर करने के लिए तो ईश्वर का प्रसाद चाहिए। इंद्रियां तो ऐसी बलवान हैं कि वे मनुष्‍य को उसके सावधान न रहने पर जबरदस्‍ती घसीट ले जाती हैं। इ‍सलिए मनुष्‍य को इंद्रियों को हमेशा अपने वश में रखना चाहिए। पर यह हो तब सकता है जब वह ईश्वर का ध्‍यान धरे, अंतर्मुख हो, हृदय में रहने वाले अंतर्यामी को पहचाने और उसकी भक्ति करे। इस प्रकार जो मनुष्‍य मुझमें परायण रहकर अपनी इंद्रियों को वश में रखता है, वह स्थिरबुद्धि योगी कहलाता है।

इससे विपरीत करने वाले के हाल भी मुझसे सुन। जिसकी इंद्रियों स्‍वच्‍छंद रूप से बरतती हैं, वह नित्य विषयों का ध्‍यान धरता है। तब उसमें उसका मन फंस जाता है। इसके सिवा उसे और कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी आसक्तियों से काम पैदा होता है। बाद को उसकी पूर्ति न होने पर उसे क्रोध आता है। क्रोधातुर तो बावला-सा हो ही जाता है, आपे में नहीं रह जाता। अत: स्‍मृति भ्रंश के कारण जो-सा बकता और करता है। ऐसे व्‍यक्ति का अंत में नाश के सिवा और क्‍या होगा? जिसकी इंद्रियां यों भटकती फिरती हैं, उसकी हालत पतवार-रहित नाव की-सी हो जाती है। चाहे जो हवा नाव को इधर-उधर घसीट ले जाती है और अंत में किसी चट्टान से टकराकर नाव चूर हो जाती है। जिसकी इंद्रियां भटका करती हैं, उसके ये हाल होते हैं। अत: मनुष्‍य को कामनाओं को छोड़ना और इंद्रियों पर काबू रखना चाहिए। इससे इंद्रियां न करने योग्‍य कार्य नहीं करेंगी, आंखें सीधी रहेंगी, पवित्र वस्‍तु को ही देखेंगी, कान भगवद्-भजन सुनेंगे, या दु:खी की आवाज सुनेंगे। हाथ-पांव सेवा-कार्य में रुके रहेंगे और ये सब इंद्रियां मनुष्‍य के कर्तव्‍य-कार्य में ही लगी रहेंगी और उसमें से उन्‍हें ईश्‍वर की प्रसादी मिलेगी। वह प्रसादी मिली कि सारे दु:ख गये समझो।

सूर्य के तेज से जैसे बर्फ पिघल जाती है, वैसे ईश्‍वर-प्रसादी के तेज से दु:खमात्र भाग जाते हैं और ऐसे मनुष्‍य को स्थिरबुद्धि कहते हैं। पर जिसकी बुद्धि स्थिर नहीं है, उसे अच्‍छी भावना कहाँ से आवेगी? जिसे अच्‍छी भावना नहीं, उसे शांति कहां? जहाँ शांति नहीं, वहाँ सुख कहां? स्थिरबुद्धि मनुष्‍य को जहाँ दीपक की भाँति साफ दिखाई देता है, वहाँ अस्थिर मनवाले दुनिया की गड़बड़ में पड़े रहते हैं और देख ही नहीं, सकते, और ऐसी गड़बड़ वालों को जो स्‍पष्‍ट लगता है, वह समाधिस्‍थ योगी को स्‍पष्‍ट रूप से मलिन लगता है और वह उधर नजर तक नहीं डालता। ऐसी योगी की तो ऐसी स्थिति होती है कि नदी-नालों का पानी जैसे समुद्र में समा जाता है, वैसे विषय मात्र इस समुद्र-रूप योगी में समा जाते हैं। और ऐसा मनुष्‍य समुद्र की भाँति हमेशा शांत रहता है। इससे जो मनुष्‍य सब कामनाएं तजकर, निरहंकार होकर, ममता छोड़कर तटस्‍थ रूप से बरतता है, वह शांति पाता है। यह ईश्‍वर-प्राप्ति की स्थिति है और ऐसी स्थिति जिसकी मृत्यु तक टिकती है, वह मोक्ष पाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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