गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 48

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना


अवतार से तात्‍पर्य है शरीरधारी पुरुष विशेष। जीव मात्र ईश्वर के अवतार हैं, परंतु लौकिक भाषा में सबको हम अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्‍ठ धर्मवान है, उसे भावी प्रजा अवतार रूप से पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं जान पड़ता इसमें न तो ईश्वर के बड़प्‍पन में कमी आती है, न उसमें सत्‍य को आघात पहुँचता है। ʻʻआदम खुदा नहीं; लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं।ʼʼ जिसमें धर्म-जागृति अपने युग में सबसे अधिक है वह विशेषावतार है। इस विचार-श्रेणी से कृष्‍णरूपी संपूर्णावतार आज हिंदू-धर्म में सम्राज्‍य भोग रहा है।

यह दृश्‍य मनुष्‍य की अंतिम सदभिलाषा का सूचक है। मनुष्‍य को ईश्वर- रूप हुए बिना चैन नहीं पड़ता, शांति नहीं मिलती। ईश्वर रूप होने के प्रयत्‍न का नाम सच्‍चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और यही आत्‍मदर्शन है। य‍‍ह आत्‍मदर्शन सब धर्म-ग्रंथों का विषय है, वैसे ही गीता का भी है। पर गीताकार ने इस विषय का प्रतिपादन करने के लिए गीता नहीं रची, वरन् आत्‍मार्थी को आत्‍मदर्शन का एक अद्वितीय उपाय बतलाना गीता का आशय है। जो चीज हिंदू धर्म-ग्रंथों में छिट-पुट दिखाई देती है, उसे गीता ने अनेक रूपों में, अनेक शब्‍दों में, पुनरुक्ति का दोष स्‍वीकार करके भी, अच्‍छी तरह स्‍थापित किया है।

वह अद्वितीय उपाय है ʻकर्मफलत्‍याग।ʼ

इस मध्‍यबिंदु के चारों ओर गीता की सारी सजावट है। भक्ति, ज्ञान इत्‍यादि इसके आसपास तारा-मंडल-रूप में सज गये हैं। जहाँ देह है, वहां कर्म तो है ही। उसमें से कोई मुक्‍त नहीं है, तथापि देह को प्रभु का मंदिर बनाकर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्‍त होती है, यह सब धर्मों ने प्रतिपादन किया है; परंतु कर्ममात्र में कुछ दोष तो हैं हो, मुक्ति तो निर्दोष की ही होती है। तब कर्म बंधन में से अर्थात दोष-स्‍पर्श में से कैसे छुटकारा हो? इसका जवाब गीता जी ने निश्‍चयात्‍मक शब्‍दों में दिया है- ʻʻनिष्‍काम कर्म से, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्मफल त्‍याग करके, सब कर्मों को कृष्‍णार्पण करके, अर्थात मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।ʼʼ

पर निष्‍कामता, कर्मफल-त्‍याग कहने भर से नहीं हो जाता। यह केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। यह हृदय-मंथन से ही उत्‍पन्‍न होता है। यह त्‍याग- शक्ति पैदा करने के लिए ज्ञान चाहिए। एक प्रकार का ज्ञान तो बहुत तेरे पंडित पाते हैं। वेदादि उन्‍हें कंठ होते हैं; परंतु उनमें से अधिकांश भोगादि में लगे-लिपटे रहते हैं। ज्ञान का अतिरेक शुष्‍क पांडित्‍य के रूप में न हो जाय, इस ख्याल के गीताकार के ज्ञान के साथ भक्ति को मिलाया और उसे प्रथम स्‍थान दिया। बिना भक्ति का ज्ञान हानिकार है। इसलिए कहा गया, ʻʻभक्ति करो तो ज्ञान मिल ही जायगा।ʼʼ पर भक्ति तो ʻसिर का सौदाʼ है, इसलिए गीताकार ने भक्ति के लक्षण स्थितप्रज्ञ के से बतलाये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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