गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
प्रस्तावना
यह दृश्य मनुष्य की अंतिम सदभिलाषा का सूचक है। मनुष्य को ईश्वर- रूप हुए बिना चैन नहीं पड़ता, शांति नहीं मिलती। ईश्वर रूप होने के प्रयत्न का नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और यही आत्मदर्शन है। यह आत्मदर्शन सब धर्म-ग्रंथों का विषय है, वैसे ही गीता का भी है। पर गीताकार ने इस विषय का प्रतिपादन करने के लिए गीता नहीं रची, वरन् आत्मार्थी को आत्मदर्शन का एक अद्वितीय उपाय बतलाना गीता का आशय है। जो चीज हिंदू धर्म-ग्रंथों में छिट-पुट दिखाई देती है, उसे गीता ने अनेक रूपों में, अनेक शब्दों में, पुनरुक्ति का दोष स्वीकार करके भी, अच्छी तरह स्थापित किया है। वह अद्वितीय उपाय है ʻकर्मफलत्याग।ʼ इस मध्यबिंदु के चारों ओर गीता की सारी सजावट है। भक्ति, ज्ञान इत्यादि इसके आसपास तारा-मंडल-रूप में सज गये हैं। जहाँ देह है, वहां कर्म तो है ही। उसमें से कोई मुक्त नहीं है, तथापि देह को प्रभु का मंदिर बनाकर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है, यह सब धर्मों ने प्रतिपादन किया है; परंतु कर्ममात्र में कुछ दोष तो हैं हो, मुक्ति तो निर्दोष की ही होती है। तब कर्म बंधन में से अर्थात दोष-स्पर्श में से कैसे छुटकारा हो? इसका जवाब गीता जी ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है- ʻʻनिष्काम कर्म से, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्मफल त्याग करके, सब कर्मों को कृष्णार्पण करके, अर्थात मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।ʼʼ पर निष्कामता, कर्मफल-त्याग कहने भर से नहीं हो जाता। यह केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। यह हृदय-मंथन से ही उत्पन्न होता है। यह त्याग- शक्ति पैदा करने के लिए ज्ञान चाहिए। एक प्रकार का ज्ञान तो बहुत तेरे पंडित पाते हैं। वेदादि उन्हें कंठ होते हैं; परंतु उनमें से अधिकांश भोगादि में लगे-लिपटे रहते हैं। ज्ञान का अतिरेक शुष्क पांडित्य के रूप में न हो जाय, इस ख्याल के गीताकार के ज्ञान के साथ भक्ति को मिलाया और उसे प्रथम स्थान दिया। बिना भक्ति का ज्ञान हानिकार है। इसलिए कहा गया, ʻʻभक्ति करो तो ज्ञान मिल ही जायगा।ʼʼ पर भक्ति तो ʻसिर का सौदाʼ है, इसलिए गीताकार ने भक्ति के लक्षण स्थितप्रज्ञ के से बतलाये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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