गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 4

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
दूसरा अध्‍याय


ʻʻयह तो मैंने तेरे सामने बुद्धि की दलील रखी, आत्‍मा और देह का भेद बताया और तेरे कुल-धर्म का तुझे भान कराया, पर अब तुझे मैं कर्मयोग की बात समझाता हूँ। इस योग पर अमल करने वाले को कभी नुकसान नहीं होता। इसमें तर्क की बात नहीं है, आचरण की है, करके अनुभव पाने की बात है, और यह तो प्रसिद्ध अनुभव है कि हजारों मन तर्क की अपेक्षा तोला-भर आचरण की कीमत अधिक है। इस आचरण में भी यदि अच्‍छे-बुरे परिणाम का तर्क आ घुसे तो वह दूषित हो जाता है। परिणाम के विचार से ही बुद्धि मलिन हो जाती है। वेदवादी लोग कर्मकांड में पड़कर अनेक प्रकार के फल पाने की इच्‍छा से अनेक क्रियाएं आरम्‍भ कर बैठते हैं। एक से फल न मिलने पर दूसरी के पीछे दौड़ते हैं। फिर कोई तीसरी बता देता है तो उसके पीछे हैरान होते हैं, और ऐसा करने में उनकी मति भ्रम में पड़ जाती है। वास्‍तव में मनुष्‍य का धर्म फल का विचार छोड़-कर कर्तव्‍य-कर्म किये जाने का है। इस समय यह युद्ध तेरा कर्तव्‍य है, इसे पूरा करना तेरा धर्म है। लाभ-हानि, हार-जीत तेरे हाथ में नहीं है। तू गाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की भाँति इसका बोझ क्‍यों ढोता है? हार-जीत, सरदी-गरमी, सुख-दु:ख देह के साथ लगे ही हुए हैं, उन्‍हें मनुष्‍य को सहना चाहिए। जो भी नतीजा हो, उसके विषय में निश्चित रहकर तथा समता रखकर मनुष्‍य को अपने कर्तव्‍य में तन्‍मय रहना चाहिए। इसका नाम योग है और इसी में कर्म कुशलता है। कार्य की सिद्धि-कार्य के करने में छिपी है, उसके परिणाम में नहीं। तू स्‍वस्‍थ हो, फल का अभिमान छोड़ और कर्तव्‍य का पालन करे।' यह सुनकर अर्जुन पूछता है, ʻʻयह तो मेरे बूते के बाहर जान पड़ता है। हार-जीत का विचार छोड़ना, परिणाम का विचार ही न करना, ऐसी समता, ऐसी स्थिर बुद्धि, कैसे आ सकती है? मुझे समझाइये कि ऐसी स्थिर बुद्धि वाले कैसे होते हैं, उन्‍हें कैसे पहचाना जा सकता है?̕̕"

तब भगवान ने जवाब दिया:

ʻʻहे अर्जुन! जिस मनुष्‍य ने अपनी कामना-मात्र का त्‍याग किया है और जो अपने अन्‍तर में ही संतोष प्राप्‍त करता है, वह स्थिरचित्त, स्थितप्रज्ञ, स्थिरबुद्धि या समाधिस्‍थ कहलाता है। ऐसा मनुष्‍य न दु:ख से दु:खी होता है, न सुख से फूल उठता है। सुख-दु:खादि पांच इंद्रियों के विषय हैं। इसलिए ऐसा बुद्धिमान मनुष्‍य कछुए की भाँति अपनी इंद्रियों को समेट लेता है, पर कछुआ तो जब किसी दुश्‍मन को देखता है तब अपने अंगों को ढाल के नीचे समेटता है; लेकिन मनुष्‍य की इंद्रियों पर तो विषय नित्‍य चढ़ाई करने को खड़े ही हैं, अत: उसे तो हमेशा इंद्रियों को समेटे रखना और स्‍वयं ढाल रूप होकर विषयों के मुकाबले में लड़ना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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