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गीता-बोध
दूसरा अध्याय
ʻʻयह तो मैंने तेरे सामने बुद्धि की दलील रखी, आत्मा और देह का भेद बताया और तेरे कुल-धर्म का तुझे भान कराया, पर अब तुझे मैं कर्मयोग की बात समझाता हूँ। इस योग पर अमल करने वाले को कभी नुकसान नहीं होता। इसमें तर्क की बात नहीं है, आचरण की है, करके अनुभव पाने की बात है, और यह तो प्रसिद्ध अनुभव है कि हजारों मन तर्क की अपेक्षा तोला-भर आचरण की कीमत अधिक है। इस आचरण में भी यदि अच्छे-बुरे परिणाम का तर्क आ घुसे तो वह दूषित हो जाता है। परिणाम के विचार से ही बुद्धि मलिन हो जाती है। वेदवादी लोग कर्मकांड में पड़कर अनेक प्रकार के फल पाने की इच्छा से अनेक क्रियाएं आरम्भ कर बैठते हैं। एक से फल न मिलने पर दूसरी के पीछे दौड़ते हैं। फिर कोई तीसरी बता देता है तो उसके पीछे हैरान होते हैं, और ऐसा करने में उनकी मति भ्रम में पड़ जाती है। वास्तव में मनुष्य का धर्म फल का विचार छोड़-कर कर्तव्य-कर्म किये जाने का है। इस समय यह युद्ध तेरा कर्तव्य है, इसे पूरा करना तेरा धर्म है। लाभ-हानि, हार-जीत तेरे हाथ में नहीं है। तू गाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की भाँति इसका बोझ क्यों ढोता है? हार-जीत, सरदी-गरमी, सुख-दु:ख देह के साथ लगे ही हुए हैं, उन्हें मनुष्य को सहना चाहिए। जो भी नतीजा हो, उसके विषय में निश्चित रहकर तथा समता रखकर मनुष्य को अपने कर्तव्य में तन्मय रहना चाहिए। इसका नाम योग है और इसी में कर्म कुशलता है। कार्य की सिद्धि-कार्य के करने में छिपी है, उसके परिणाम में नहीं। तू स्वस्थ हो, फल का अभिमान छोड़ और कर्तव्य का पालन करे।' यह सुनकर अर्जुन पूछता है, ʻʻयह तो मेरे बूते के बाहर जान पड़ता है। हार-जीत का विचार छोड़ना, परिणाम का विचार ही न करना, ऐसी समता, ऐसी स्थिर बुद्धि, कैसे आ सकती है? मुझे समझाइये कि ऐसी स्थिर बुद्धि वाले कैसे होते हैं, उन्हें कैसे पहचाना जा सकता है?̕̕"
तब भगवान ने जवाब दिया:
ʻʻहे अर्जुन! जिस मनुष्य ने अपनी कामना-मात्र का त्याग किया है और जो अपने अन्तर में ही संतोष प्राप्त करता है, वह स्थिरचित्त, स्थितप्रज्ञ, स्थिरबुद्धि या समाधिस्थ कहलाता है। ऐसा मनुष्य न दु:ख से दु:खी होता है, न सुख से फूल उठता है। सुख-दु:खादि पांच इंद्रियों के विषय हैं। इसलिए ऐसा बुद्धिमान मनुष्य कछुए की भाँति अपनी इंद्रियों को समेट लेता है, पर कछुआ तो जब किसी दुश्मन को देखता है तब अपने अंगों को ढाल के नीचे समेटता है; लेकिन मनुष्य की इंद्रियों पर तो विषय नित्य चढ़ाई करने को खड़े ही हैं, अत: उसे तो हमेशा इंद्रियों को समेटे रखना और स्वयं ढाल रूप होकर विषयों के मुकाबले में लड़ना है।
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