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गीता-बोध
पन्द्रहवां अध्याय
सूर्य का जो तेज जगत को प्रकाशित करता है, जो चन्द्रमा
में है, जो अग्नि में है, उन सारे तेजों को मेरा तेज जान। अपनी
शक्ति द्वारा शरीर में प्रवेश करके मैं जीवों का धारण करता हूँ।
रस उत्पन्न करने वाला सोम बनकर औषधि मात्र का पोषण
करता हूँ। प्राणियों की देह में रह करके जठराग्नि बनकर प्राण,
अपान वायु को समान करके, चार प्रकार का अन्न पचाता हूँ।
सबके हृदय के भीतर विद्यमान हूँ। मेरे द्वारा ही स्मृति है, ज्ञान है,
उसका अभाव है, सब वेदों के द्वारा जानने योग्य जो है, वह मैं
हूँ। वेदान्त भी मैं हूं, वेदान्त को जानने वाला भी मैं हूँ।
इस लोक में कहा जाता है कि दो पुरुष हैं - क्षर और अक्षर
अथवा नाशवान और नाशरहित। इसमें जीव क्षर कहलाते हैं,
उनमें स्थिर हुआ मैं अक्षर हूँ और उससे भी परे जो उत्तम पुरुष
है, वह परमात्मा कहलाता है। वह अव्यय ईश्वर तीनों लोकों में
प्रवेश करके उसका पालन करता है, वह भी मैं हूं; इससे मैं क्षर
और अक्षर से भी उत्तम हूं, और लोकों में, वेद में, पुरुषोत्तम-
रूप से प्रसिद्ध हूँ। इस प्रकार जो ज्ञानी मुझे पुरुषोत्तम रूप से
पहचानता है, वह सब जानता है और मुझे सब भावों द्वारा
भजता है।
हे निष्पाप अर्जुन, यह अति गुह्य शास्त्र मैंने तुझे कहा है।
इसे जानकर मनुष्य बुद्धिमान बनता है और अपने ध्येय को
पहुँचता है।
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