गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
बारहवां अध्याय
मैं तुझे भक्त के लक्षण बतलाता हूँ - भक्त किसी का द्वेष न करे, किसी के प्रति बैर-भाव न रखे, जीवमात्र से मैत्री रखे, जीवमात्र के प्रति करुणा का अभ्यास करे, ऐसा करने के लिए ममता छोड़े, अपनापन मिटाकर शून्यवत हो जाये, दु:ख-सुख को समान माने। कोई दोष करे तो उसे क्षमा करे [1] संतोषी रहे, अपने शुभ निश्चयों से कभी विचलित न हो। मन-बुद्धि सहित सर्वस्व मेरे अर्पण करे। उससे लोगों को उद्वेग नहीं होना चाहिए, न लोग उससे डरें, वह स्वयं लोगों से दु:ख न माने, न डरे। मेरा भक्त हर्ष, शोक, भय आदि से मुक्त होता है। उसे किसी प्रकार की इच्छा नहीं होती, वह पवित्र होता है, कुशल होता है, वह बड़े-बड़े आरम्भों को त्यागे हुए होता है, निश्चय में दृढ़ होते हुए भी शुभ और अशुभ परिणाम, दोनों का वह त्याग करता है, अर्थात उसके बारे में निश्चित रहता है। उसके लिए शत्रु कौन और मित्र कौन? उसे मान क्या, अपमान क्या? वह तो मौन धारण करके जो मिल जाय, उससे संतोष रखकर एकाकी की भाँति बिचरता हुआ सब स्थितियों में स्थिर होकर रहता है। इस भाँति श्रद्धालु होकर चलने वाला मेरा भक्त है। टिप्पणी - ʻʻसूतरने तांतणे मने हरजीए बांधी, भक्त के सब आरंभ भगवान रचता है। उसे सब कर्म- प्रवाह प्राप्त होते हैं, इससे वह ʻसंतुष्टो येन केनचित्ʼ रहे। सर्वारंभ त्याग का भी यही अर्थ है। सर्वारंभ अर्थात् सारी प्रवृत्ति या काम नहीं, बल्कि उन्हें करने के विचार, मनसूबे गांठना। उसका त्याग करने के मानी उनका आरंभ न करना, मनसूबे गांठने की आदत हो तो उसे छोड़ देना। ʻइदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्ʼ यह आरंभ त्याग का उलटा है। मेरे खयाल में तुम जो जानना चाहते हो, सब इसमें आ जाता है। कुछ बाकी रह गया हो तो पूछना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह जानकर कि स्वयं अपने दोषों के लिए संसार से क्षमा का भूखा है
- ↑ मुझे भगवान ने सूत के धागे से बांध लिया है। ज्यों-ज्यों तानते हैं, मैं उनकी होती जाती हूँ। मुझे तो प्रेम-कटारी लगी है।
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