गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 33

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
बारहवां अध्‍याय


उसकी अपेक्षा उपासना रूप ध्‍यान सरल है और ध्‍यान की अपेक्षा कर्मफल-त्‍याग सरल है। सबके लिए एक ही वस्‍तु समान भाव से सरल नहीं होती और किसी-किसी को सभी मार्ग लेने पड़ते हैं। वे एक-दूसरे के साथ मिल-जुले तो हैं ही। चाहे जिस मार्ग से हो, तुझे तो भक्त होना है। जिस मार्ग से भक्ति सधे, उस मार्ग से उसे साघ।

मैं तुझे भक्‍त के लक्षण बतलाता हूँ - भक्‍त किसी का द्वेष न करे, किसी के प्रति बैर-भाव न रखे, जीवमात्र से मैत्री रखे, जीवमात्र के प्रति करुणा का अभ्‍यास करे, ऐसा करने के लिए ममता छोड़े, अपनापन मिटाकर शून्‍यवत हो जाये, दु:ख-सुख को समान माने। कोई दोष करे तो उसे क्षमा करे [1] संतोषी रहे, अपने शुभ निश्‍चयों से कभी विचलित न हो। मन-बुद्धि सहित सर्वस्‍व मेरे अर्पण करे। उससे लोगों को उद्वेग नहीं होना चाहिए, न लोग उससे डरें, वह स्‍वयं लोगों से दु:ख न माने, न डरे। मेरा भक्‍त हर्ष, शोक, भय आदि से मुक्‍त होता है। उसे किसी प्रकार की इच्‍छा नहीं होती, वह पवित्र होता है, कुशल होता है, वह बड़े-बड़े आरम्‍भों को त्‍यागे हुए होता है, निश्‍चय में दृढ़ होते हुए भी शुभ और अशुभ परिणाम, दोनों का वह त्‍याग करता है, अर्थात उसके बारे में निश्चित रहता है। उसके लिए शत्रु कौन और मित्र कौन? उसे मान क्‍या, अपमान क्‍या? वह तो मौन धारण करके जो मिल जाय, उससे संतोष रखकर एकाकी की भाँति बिचरता हुआ सब स्थितियों में स्थिर होकर रहता है। इस भाँति श्रद्धालु होकर चलने वाला मेरा भक्त है।

टिप्‍पणी -
प्रश्‍न - ʻभक्‍त आरंभ न करेʼ का क्‍या मतलब है? कोई दृष्‍टांत देकर समझाइयेगा?
उत्तर - ʻभक्‍त आरंभ न करेʼ इसका मतलब यह है कि किसी भी व्‍यवसाय के मनसूबे न गांठे। जैसे एक व्‍यापारी आज कपड़े का व्‍यापार करता है तो कल उसमें लकड़ी का और शामिल करने का उद्यम करने लगा, अथवा कपड़े की एक दुकान है तो कल पांच और दूकानें खोल बैठा, इसका नाम आरम्भ है। भक्‍त उसमें न पड़े। यह नियम सेवाकार्य के बारे में भी लागू होता है। आज खादी की मार्फत सेवा करता है तो कल गाय की मार्फत, परसों खेती की मार्फत और चौथे दिन डाक्‍टरी की मार्फत। इस प्रकार सेवक भी फुदकता न फिरे। उसके हिस्‍से में जो आ जाय, उसे पूरी तरह करके मुक्‍त हो। जहाँ ʻमैंʼ वहाँ ʻमुझेʼ क्‍या करने को रह जाता है?

ʻʻसूतरने तांतणे मने हरजीए बांधी,
जेम ताणे तेम तेमनी रे
मने लागी कटारी प्रेमनी रे।ʼʼ[2]

भक्‍त के सब आरंभ भगवान रचता है। उसे सब कर्म- प्रवाह प्राप्‍त होते हैं, इससे वह ʻसंतुष्‍टो येन केनचित्ʼ रहे। सर्वारंभ त्‍याग का भी यही अर्थ है। सर्वारंभ अर्थात् सारी प्रवृत्ति या काम नहीं, बल्कि उन्‍हें करने के विचार, मनसूबे गांठना। उसका त्‍याग करने के मानी उनका आरंभ न करना, मनसूबे गांठने की आदत हो तो उसे छोड़ देना। ʻइदमद्य मया लब्‍धमिमं प्राप्‍स्‍ये मनोरथम्ʼ यह आरंभ त्‍याग का उलटा है। मेरे खयाल में तुम जो जानना चाहते हो, सब इसमें आ जाता है। कुछ बाकी रह गया हो तो पूछना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह जानकर कि स्‍वयं अपने दोषों के लिए संसार से क्षमा का भूखा है
  2. मुझे भगवान ने सूत के धागे से बांध लिया है। ज्‍यों-ज्‍यों तानते हैं, मैं उनकी होती जाती हूँ। मुझे तो प्रेम-कटारी लगी है।

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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