गीता माता -महात्मा गांधी
11 : गीता और रामायण
ऊपर के पत्र में लिखा है कि पत्र- लेखक को जैसे ही अपने तन्दुरुस्त होने का ख्याल आता है, विकार फिर से चढ़ दौड़ते हैं। जो बात शरीर के लिए है, वही मन के लिए भी है। जिसका शरीर बिलकुल चंगा है, उसे अपने अच्छेपन का ख्याल कभी आता ही नहीं, न उसकी कोई जरूरत ही है, क्योंकि तुदरुस्ती तो शरीर का स्वभाव है। यही बात मन को भी लागू होती है। जिस दिन मन की तंदुरुस्ती का ख्याल आवे, समझ लें कि विकार पास आकर झांक रहे हैं। अतः मन को हमेशा स्वस्थ बनाये रखना ही है। इसी कारण रामनाम आदि के जप की बात की शोध हुई और वे गाये गए। जिसके हृदय में हर घड़ी राम का निवास हो, उस पर विकारों का हमला हो ही नहीं सकता। सच तो यह है कि जो शुद्ध बुद्धि से रामनाम का जप करता है, समय पाकर रामनाम उसके हृदय में घर कर लेता है। इस तरह हृदय-प्रवेश होने के बाद रामनाम उस मनुष्य के लिए एक अभेद्य किला बन जाता है। बुराई, बुराई का ख्याल करते रहने से नहीं मिटती। हां, अच्छाई का विचार करने से बुराई जरूर मिट जाती है। लेकिन बहुत बार देखा गया है कि लोग सच्ची नीयत से उल्टी तरकीबें काम में लाते हैं। ‘यह कैसे आई, कहाँ से आई?- वगैरहा विचार करने से बुराई का ध्यान बढ़ता जाता है। बुराई को मेटने का यह उपाय हिंसक कहा जा सकता है। इसका सच्चा उपाय तो बुराई से असहयोग करना है। जब बुराई हम पर आक्रमण करे तो उससे 'भाग जाना' कहने की कोई जरूरत नहीं। हमें तो यह समझ लेना चाहिए कि बुराई नाम की कोई चीज है ही नहीं और हमेशा स्वच्छता का, अच्छाई का, विचार करते रहना चाहिए। ‘भाग जा‘ कहने में डर का भाव है। उसका विचार तक न करने में निडरता है। हमें सदा यह विश्वास बढ़ाते रहना चाहिए कि बुराई मुझे छू तक नहीं सकती। अनुभव द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है। 18 अप्रैल, 1929 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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