गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 256

गीता माता -महात्मा गांधी

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6 : गीता का अर्थ


अहिंसक कृष्ण अर्जुन को दूसरी सलाह दे ही नहीं सकते थे; लेकिन उससे यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि गीता जी में हिंसा ही का प्रतिपादन किया गया है। यह अर्थ निकालना उतना ही अनुचित है जितना कि यह कहना कि शरीर व्यापार के लिए कुछ हिंसा अनिवार्य है और इसलिए हिंसा ही धर्म है। सूक्ष्मदर्शी इस हिंसामय शरीर के अशरीरी होने का अर्थात मोक्ष का ही धर्म सिखाता है।

लेकिन धृतराष्ट्र कौन थे? दुर्योधन, युधिष्ठिर और अर्जुन कौन थे? कृष्ण कौन थे? क्या ये सब ऐतिहासिक पुरुष थे? और क्या गीता जी में उनके स्‍थूल व्‍यवहार का ही वर्णन किया गया है। अकस्‍मात अर्जुन सवाल करता है और कृष्ण सारी गीता पढ़े जाते हैं। और अर्जुन यह कहकर भी कि उसका मोह नष्ट हो गया है, यही गीता फिर भूल जाता है और कृष्ण से दोबारा अनुगीता कहलवाता है!

मै तो दुर्योधनादि को आसुरी और अर्जुनादि को दैवी वृति मानता हूँ। धर्मक्षेत्र यह शरीर ही है। उसमें द्वंद्व चलता ही रहता है और अनुभवी ऋषि कवि उसका तादृश वर्णन करते हैं। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं और हमेशा शुद्ध-चित्त में घड़ी की तरह टिक-टिक करते रहते हैं। यदि चित्त को शुद्धरूपी चाबी नहीं दी गई तो अंतर्यामी यद्यपि वहाँ रहते तो हैं, तथापि उनका टिक-टिकाना तो अवश्‍य ही बंद हो जता है।

कहने का आशय यह नहीं कि इसमें स्‍थूल युद्ध के लिए अवकाश ही नहीं है। जिसे अहिंसा सूझी ही नहीं है, उसे यह धर्म नही सिखाया गया है कि कायर बनना चाहिए। जिसे भय लगता है, जो संग्रह करता है, जो विषय में रत है, वह अवश्‍य ही हिंसामय युद्ध करेगा; लेकिन उसका वह धर्म नहीं है। धर्म तो एक ही है। अहिंसा के मानी है मोक्ष और मोक्ष है सत्यनारायण का साक्षात्कार। इसमें पीठ दिखाने को तो कहीं अवकाश ही नहीं है। इस विचित्र संसार में हिंसा तो होती ही रहेगी। उससे बचने का मार्ग गीता दिखाती है; लेकिन साथ-ही-साथ गीता यह भी कहती है कि कायर होकर भागने से हिंसा से नहीं बच सकोगे। जो भागने का विचार करता है, वह तो मारेगा और मरेगा।

प्रश्नकर्ता ने जिन श्लोकों का उल्लेख किया है, उनका अर्थ यदि अब भी उनकी समझ में न आवे तो मैं समझाने में असमर्थ हूँ। सर्वशक्तिमान् ईश्वर कर्ता, भर्त्ता और संहर्त्ता है और वह ऐसा ही होना चाहिए। इस विषय में कोई शंका तो ना होगी न? जो उत्पन्न करता है, वह उसका नाश करने का अधिकार भी रखता है। फिर भी वह किसी को नहीं मारता; क्योंकि वह उत्पन्न भी नहीं करता। नियम यह है कि जिसने जन्म लिया है, उसने मरने ही के लिए जन्म लिया है। ईश्वर भी इस नियम को नहीं तोड़ सकता। यही उसकी दया है। यदि ईश्वर ही स्वन्छंद और स्वेन्छाचारी बन जाय तो फिर हम सब कहाँ जावेंगे?

15 अक्टूबर, 1925

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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