गीता माता -महात्मा गांधी
6 : गीता का अर्थ
व्यास जी ने सुंदर ग्रंथ की रचना करके युद्ध के मिथ्यात्व का ही वर्णन किया है। कौरव हारे तो उससे क्या हुआ? और पांडव जीते तो भी उससे क्या हुआ? विजयी कितने बचे? उनका क्या हुआ? कुंती माता का क्या हाल हुआ? और आज यादव-कुल कहाँ है? जहाँ विषय युद्ध-वर्णन और हिंसा का प्रतिपादन नहीं है, वहाँ उस पर जोर देना बिलकुल अनुचित ही माना जायगा और यदि कुछ श्लोकों का संबंध अहिंसा के साथ बैठाना मुश्किल मालूम होता है तो सारी गीता जी को हिंसा के चौखटे में मढ़ना तो उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है। कवि जब किसी ग्रंथ की रचना करता है तो वह उसके सब अर्थों की कल्पना नहीं कर लेता है। काव्य की यही खूबी है कि वह कवि से भी बढ़ जाता है। जिस सत्य का वह अपनी तन्मयता में उच्चारण करता है, वही सत्य उसके जीवन में अक्सर नहीं पाया जाता इसलिए बहुतेरे कवियों का जीवन उसके काव्यों के साथ सुसंगत नहीं मालूम होता। दूसरा अध्याय, जिससे विषय का आरंभ होता है और अठारहवां अध्याय, जिसमें उसकी पूर्णाहुति होती है, देखने से यही प्रतीत होगा कि गीता जी का सर्वाष तात्पर्य हिंसा नहीं, वरन् अहिंसा है। मध्य में देखोगे तो भी यही प्रतीत होगा। बिना क्रोध , राग या द्वेष के हिंसा का होना संभव नहीं और गीता तो क्रोधादि को पार करके गुणातीत की स्थिति में पहुँचाने का प्रयत्न करती है। गुणातीत में क्रोध का सर्वथा अभाव होता है। अर्जुन ने कान तक खींचकर जब-जब धनुष चढ़ाया, उस समय की उसकी लाल-लाल आंखें मैं आज भी देख सकता हूँ। परन्तु अर्जुन ने कब अहिंसा के लिए युद्ध छोड़ने की हठ की थी? उसने तो बहुत से युद्ध किये थे। उसे तो एकाएक मोह हो गया था। वह तो अपने सगे-संबंधियों को नहीं मारना चहता था। अर्जुन ने दूसरों को, जिन्हें वह पापी समझता हो, न मारने की बात तो की न थी। श्रीकृष्ण तो अंतर्यामी है। वह अर्जुन का यह क्षणिक मोह समझ लेते हैं और इसलिए उससे कहते हैं; ‘‘तुम हिंसा तो कर चुके हो। अब इस प्रकार एकाएक समझदार बनने का दंभ करके तुम अहिंसा नहीं सीख सकोगे। इसलिए जिस काम को तुमने आरंभ किया है, उसे अब तुम्हें पूरा ही करना चाहिए।‘‘ घंटे मे चालीस मील के वेग से जाने वाली रेलगाड़ी में बैठा हुआ व्यक्ति एकाएक प्रवास से विरक्त हो कर यदि चलती हुई गाड़ी से ही कूद पड़े तो यही कहा जायगा कि उसने आत्म-हत्या की है। उससे उसने प्रवास या रेलगाड़ी में बैठने के मिथ्यात्व को कुछ नहीं सीखा है। अर्जुन का भी यही हाल था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज