गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 255

गीता माता -महात्मा गांधी

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6 : गीता का अर्थ

व्यास जी ने सुंदर ग्रंथ की रचना करके युद्ध के मिथ्यात्व का ही वर्णन किया है। कौरव हारे तो उससे क्या हुआ? और पांडव जीते तो भी उससे क्या हुआ? विजयी कितने बचे? उनका क्या हुआ? कुंती माता का क्या हाल हुआ? और आज यादव-कुल कहाँ है?

जहाँ विषय युद्ध-वर्णन और हिंसा का प्रतिपादन नहीं है, वहाँ उस पर जोर देना बिलकुल अनुचित ही माना जायगा और यदि कुछ श्लोकों का संबंध अहिंसा के साथ बैठाना मुश्किल मालूम होता है तो सारी गीता जी को हिंसा के चौखटे में मढ़ना तो उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है।

कवि जब किसी ग्रंथ की रचना करता है तो वह उसके सब अर्थों की कल्पना नहीं कर लेता है। काव्य की यही खूबी है कि वह कवि से भी बढ़ जाता है। जिस सत्य का वह अपनी तन्मयता में उच्चारण करता है, वही सत्य उसके जीवन में अक्सर नहीं पाया जाता इसलिए बहुतेरे कवियों का जीवन उसके काव्यों के साथ सुसंगत नहीं मालूम होता।

दूसरा अध्याय, जिससे विषय का आरंभ होता है और अठारहवां अध्याय, जिसमें उसकी पूर्णाहुति होती है, देखने से यही प्रतीत होगा कि गीता जी का सर्वाष तात्पर्य हिंसा नहीं, वरन् अहिंसा है। मध्य में देखोगे तो भी यही प्रतीत होगा। बिना क्रोध , राग या द्वेष के हिंसा का होना संभव नहीं और गीता तो क्रोधादि को पार करके गुणातीत की स्थिति में पहुँचाने का प्रयत्न करती है। गुणातीत में क्रोध का सर्वथा अभाव होता है। अर्जुन ने कान तक खींचकर जब-जब धनुष चढ़ाया, उस समय की उसकी लाल-लाल आंखें मैं आज भी देख सकता हूँ।

परन्तु अर्जुन ने कब अहिंसा के लिए युद्ध छोड़ने की हठ की थी? उसने तो बहुत से युद्ध किये थे। उसे तो एकाएक मोह हो गया था। वह तो अपने सगे-संबंधियों को नहीं मारना चहता था। अर्जुन ने दूसरों को, जिन्हें वह पापी समझता हो, न मारने की बात तो की न थी। श्रीकृष्ण तो अंतर्यामी है। वह अर्जुन का यह क्षणिक मोह समझ लेते हैं और इसलिए उससे कहते हैं; ‘‘तुम हिंसा तो कर चुके हो। अब इस प्रकार एकाएक समझदार बनने का दंभ करके तुम अहिंसा नहीं सीख सकोगे। इसलिए जिस काम को तुमने आरंभ किया है, उसे अब तुम्हें पूरा ही करना चाहिए।‘‘ घंटे मे चालीस मील के वेग से जाने वाली रेलगाड़ी में बैठा हुआ व्यक्ति एकाएक प्रवास से विरक्त हो कर यदि चलती हुई गाड़ी से ही कूद पड़े तो यही कहा जायगा कि उसने आत्म-हत्या की है। उससे उसने प्रवास या रेलगाड़ी में बैठने के मिथ्यात्व को कुछ नहीं सीखा है। अर्जुन का भी यही हाल था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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