गीता माता -महात्मा गांधी
6 : गीता का अर्थ
सत्य का अर्थ तपश्चर्या तो है ही। सत्य का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ने चारों ओर फैली हुई हिंसा में से अहिंसा देवी को संसार के सामने प्रकट करके कहा- हिंसा मिथ्या है, माया है, अहिंसा ही सत्य वस्तु है। अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असम्भावित है। ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह भी अहिंसा के अर्थ में है। ये अहिंसा को सिद्ध करने वाले है। अहिंसा के अर्थ में है। उसके बिना मनुष्य पशु है। सत्यार्थी अपनी शोध के लिए प्रयत्न करते हुए यह सब बड़ी जल्दी समझ लेगा और फिर उसे शास्त्र का अर्थ करने में कोई मुसीबत पेश नहीं आवेगी। शास्त्र का अर्थ करने में दूसरा नियम यह है कि उसके प्रत्येक अक्षर को न पकड़कर उसकी ध्वनि खोजनी चाहिए, उसका रहस्य समझना चाहिए। तुलसीदासजी की रामायण उत्तम ग्रंथ है; शूद्र, गंवार, ढोल, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी लिखा, इसलिए यदि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे तो उसकी अधोगति होगी। रामचंद्रजी ने सीताजी पर प्रहार नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्हें कभी दुःख भी नहीं पहुँचाया। तुलसीदास जी ने केवल प्रचलित वाक्य को लिख दिया। उन्हें इस बात का ख्याल कभी न हुआ होगा कि इस वाक्य का अधार लेकर अपनी अर्धांगिनी का ताड़न करने वाले पशु भी कहीं निकल पड़ेंगे। यदि स्वयं तुलसीदास जी ने भी रिवाज के वशवर्ती होकर अपनी पत्नी का ताड़न किया हो तो भी क्या? यह ताड़न अवश्य ही दोष है। फिर भी रामायण पत्नी के ताड़न के लिए नहीं लिखी गई है। रामायण तो पूर्ण-पुरुष का दर्शन कराने के लिये सती-शिरोमणि सीता जी का परिचय कराने के लिए लिखी गई है। उसमें मिलने वाला दोषयुक्त रिवाजों का समर्थन त्याज्य है। तुलसीदास जी ने भूगोल सिखाने के लिए अपना अमूल्य ग्रंथ नहीं बनाया है, इसलिए उनके ग्रंथ में यदि गलत भूगोल पाया जाय तो उसका त्याग करना अपना धर्म है। अब गीता जी देखें। ब्रह्मज्ञान -प्राप्ति और उसके साधन, यही गीता जी के विषय हैं। दो सेनाओं के बीच युद्ध का होना निमित्त है। भले ही ऐसा कहें कि कवि स्वयं युद्धादि को निषिद्ध नहीं मानते थे और इसलिए उन्होंने युद्ध के प्रसंग का इस प्रकार उपयोग किया है। महाभारत पढ़ने के बाद तो मेरे ऊपर दूसरी ही छाप पड़ी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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