गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 254

गीता माता -महात्मा गांधी

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6 : गीता का अर्थ


सत्य विध्यात्मक है, अहिंसा निषेधात्मक है। सत्य वस्तु का साक्षी है, अहिंसा वस्तु होने पर भी उसका निषेध करती है। सत्य है, असत्य नहीं है। हिंसा है, अहिंसा नहीं हैं। फिर भी अहिंसा ही होनी चाहिए। यही परम धर्म है। सत्य स्वयंसिद्ध है। अहिंसा उसका संपूर्ण फल है। सत्य में वह छिपी हुई ही है; किंतु वह सत्य की तरह व्यक्त नहीं है। इसलिए उसको मान्य किये बिना मनुष्य भले ही शास्त्र की शोध करे, उसका सत्य आखिर उसे अहिंसा ही सिखावेगा।

सत्य का अर्थ तपश्चर्या तो है ही। सत्य का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ने चारों ओर फैली हुई हिंसा में से अहिंसा देवी को संसार के सामने प्रकट करके कहा- हिंसा मिथ्या है, माया है, अहिंसा ही सत्य वस्‍तु है। अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असम्भावित है। ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह भी अहिंसा के अर्थ में है। ये अहिंसा को सिद्ध करने वाले है। अहिंसा के अर्थ में है। उसके बिना मनुष्य पशु है। सत्यार्थी अपनी शोध के लिए प्रयत्न करते हुए यह सब बड़ी जल्दी समझ लेगा और फिर उसे शास्त्र का अर्थ करने में कोई मुसीबत पेश नहीं आवेगी।

शास्त्र का अर्थ करने में दूसरा नियम यह है कि उसके प्रत्येक अक्षर को न पकड़कर उसकी ध्वनि खोजनी चाहिए, उसका रहस्य समझना चाहिए। तुलसीदासजी की रामायण उत्‍तम ग्रंथ है; शूद्र, गंवार, ढोल, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी लिखा, इसलिए यदि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे तो उसकी अधोगति होगी। रामचंद्रजी ने सीताजी पर प्रहार नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्हें कभी दुःख भी नहीं पहुँचाया।

तुलसीदास जी ने केवल प्रचलित वाक्य को लिख दिया। उन्हें इस बात का ख्याल कभी न हुआ होगा कि इस वाक्य का अधार लेकर अपनी अर्धांगिनी का ताड़न करने वाले पशु भी कहीं निकल पड़ेंगे। यदि स्वयं तुलसीदास जी ने भी रिवाज के वशवर्ती होकर अपनी पत्नी का ताड़न किया हो तो भी क्या? यह ताड़न अवश्य ही दोष है। फिर भी रामायण पत्नी के ताड़न के लिए नहीं लिखी गई है। रामायण तो पूर्ण-पुरुष का दर्शन कराने के लिये सती-शिरोमणि सीता जी का परिचय कराने के लिए लिखी गई है। उसमें मिलने वाला दोषयुक्त रिवाजों का समर्थन त्याज्य है। तुलसीदास जी ने भूगोल सिखाने के लिए अपना अमूल्य ग्रंथ नहीं बनाया है, इसलिए उनके ग्रंथ में यदि गलत भूगोल पाया जाय तो उसका त्याग करना अपना धर्म है।

अब गीता जी देखें। ब्रह्मज्ञान -प्राप्ति और उसके साधन, यही गीता जी के विषय हैं। दो सेनाओं के बीच युद्ध का होना निमित्‍त है। भले ही ऐसा कहें कि कवि स्वयं युद्धादि को निषिद्ध नहीं मानते थे और इसलिए उन्होंने युद्ध के प्रसंग का इस प्रकार उपयोग किया है। महाभारत पढ़ने के बाद तो मेरे ऊपर दूसरी ही छाप पड़ी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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